महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 22-28

एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 22-28 का हिन्दी अनुवाद


74. ईश्वरः- सर्वशक्तिमान ईश्वर, 75. विक्रमी- शूरवीरता से युक्त, 76. धन्वी- शारंग धनुष रखने वाले, 77. मेधावी- अतिशय बुद्धिमान, 78. विक्रमः- गरुड़ पक्षी द्वारा गमन करने वाले, 79. क्रमः- क्रम विस्तार के कारण, 80. अनुत्तमः- सर्वोत्कृष्ट, 81. दुराधर्षः- किसी से भी तिरस्कृत न हो सकने वाले, 82. कृतज्ञः- अपने निमित्त से थोड़ा-सा भी त्याग किये जाने पर उसे बहुत मानने वाले यानि पत्र-पुष्पादित थोड़ी-सी वस्तु समर्पण करने वालों को भी मोक्ष दे देने वाले, 83. कृतिः- पुरुष-प्रयत्न के आधाररूप, 84. आत्मवान्- अपनी ही महिमा में स्थित, 85. सुरेशः- देवताओं के स्वामी, 86. शरणम्- दीन-दु:खियों के परम आश्रय, 87. शर्म- परमानन्दस्वरूप, 88. विश्वरेताः- विश्व के कारण, 89. प्रजाभवः- सारी प्रजा को उत्पन्न करने वाले, 90. अहः- प्रकाशरूप, 91. संवत्सरः- कालरूप से स्थित, 92. व्यालः- शेषनागस्वरूप, 93. प्रत्ययः- उत्तम बुद्धि से जानने में आने वाले, 94. सर्वदर्शनः- सबके दृष्टा।

95. अजः- जन्मरहित, 96. सर्वेश्वरः- समस्त ईश्वरों के भी ईश्वर, 97. सिद्धः- नित्यसिद्ध, 98. सिद्धिः- सबके फलस्वरूप, 99. सर्वादिः- सब भूतों के आदि कारण, 100. अच्युतः- अपनी स्वरूप स्थिति से कभी त्रिकाल में भी च्युत न होने वाले, 101. वृषाकपिः- धर्म और वराहरूप, 102. अमेयात्मा- अप्रमेयस्वरूप, 103. सर्वयोगविनिःसृतः- नाना प्रकार के शास्त्रोक्त साधनों से जानने में आने वाले, 104. वसुः- सब भूतों के वासस्थान, 105. वसुमनाः- उदार मन वाले, 106. सत्यः- सत्यस्वरूप, 107. समात्मा- सम्पूर्ण प्राणियों में एक आत्मारूप से विराजने वाले, 108. असम्मितः- समस्त पदार्थों से मापे न जा सकने वाले, 109. समः- सब समय समस्त विकारों से रहित, 110. अमोघः- भक्तों के द्वारा पूजन, स्वतन अथवा स्मरण किये जाने पर उन्हें वृथा न करके पूर्णरूप से उनका फल प्रदान करने वाले, 111. पुण्डरीकाक्षः- कमल के समान नेत्रों वाले, 112. वृषकर्मा- धर्ममय कर्म करने वाले, 113. वृषाकृतिः- धर्म की स्थापना करने के लिये विग्रह धारण करने वाले, 114. रुद्रः- दु:ख के कारण को दूर भगा देने वाले, 115. बहुशिराः- बहुत-से सिरों वाले, 116. बभ्रुः- लोकों का भरण करने वाले, 117. विश्वयोनिः- विश्व को उत्पन्न करने वाले, 118. शुचिश्रवाः- पवित्र कीर्ति वाले, 119. अमृतः- कभी न मरने वाले, 120. शाश्वतस्थाणुः- नित्य सदा एकरस रहने वाले एवं स्थिर, 121. वरारोहः- आरूढ़ होने के लिये परम उत्तम अपुनरावृत्तिस्थानरूप, 122. महातपाः- प्रताप (प्रभाव) रूप महान तप वाले।

123. सर्वगः- कारणरूप से सर्वत्र व्याप्त रहने वाले, 124. सर्वविद्भानुः- सब कुछ जानने वाले प्रकाशरूप, 125. विष्वक्सेनः- युद्ध के लिये की हुई तैयारी मात्र से ही दैत्यसेना को तितर-बितर कर डालने वाले, 126. जनार्दनः- भक्तों के द्वारा अभ्युदयनिःश्रेयसरूप परम पुरुषार्थ की याचना किये जाने वाले, 127. वेदः- वेदरूप, 128. वेदवित्- वेद तथा वेद के अर्थ को यथावत् जानने वाले, 129. अव्यंगः- ज्ञानादि से परिपूर्ण अर्थात् किसी प्रकार अधूरे न रहने वाले सर्वांगपूर्ण, 130. वेदांगः- वेदरूप अंगों वाले, 131. वेदवित्- वेदों को विचारने वाले, 132. कविः- सर्वज्ञ, 133. लोकाध्यक्षः- समस्त लोकों के अधिपति, 134. सुराध्यक्षः- देवताओं के अध्यक्ष, 135. धर्माध्यक्षः- अनुरूप फल देने के लिये धर्म ओर अधर्म का निर्णय करने वाले, 136. कृताकृतः- कार्यरूप से कृत और कारणरूप से अकृत, 137. चतुरात्मा- ब्रह्मा, विष्णु, महेश और निराकार ब्रह्म- इन चार स्वरूपों वाले, 138. चतुर्व्यूह:- उत्पत्ति, स्थिति, नाश और रक्षारूप चार व्यूह वाले, 139. चतुर्दंष्ट्रः- चार दाढ़ों वाले नरसिंहरूप, 140. चतुर्भुजः- चार भुजाओं वाले, वैकुण्ठवासी भगवान विष्णु।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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