महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 87 श्लोक 1-22

सप्ताशीतितम (87) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: सप्ताशीतितम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद


आठवें दिन व्यूहबद्ध कौरव-पाण्डनव-सेनाओं की रणयात्रा और उनका परस्पर घमासान युद्ध

संजय कहते हैं- राजन्! नरेश्वर! कौरव और पाण्डव निद्रा सुख का अनुभव करके वह रात बिताकर पुन: युद्ध के लिये निकले। महाराज! वे दोनों सेनाएं जब युद्ध के लिये शिबिर से बाहर निकलने लगी, उस समय संग्रामभूमि में महासागर की गर्जना के समान महान् घोष होने लगा। नरेश्वर! तत्पश्चात् राजा दुर्योधन, चित्रसेन, विविंशति, रथियों में श्रेष्ठ भीष्म तथा द्रोणाचार्य- ये सब संगठित एवं सावधान होकर पाण्डवों से युद्ध करने के लिये कवच बांधकर कौरवों के विशाल सैन्य की व्यूह-रचना करने लगे। प्रजानाथ! आपके ताऊ भीष्म ने समुद्र के समान विशाल एवं भयंकर महाव्यूह का निर्माण किया, जिसमें हाथी, घोडे़ आदि वाहन उत्ताल तरंगों के समान प्रतीत होते थे। शान्तनुनन्दन भीष्म सम्पूर्ण सेनाओं के आगे-आगे चले। उनके साथ मालवा, दक्षिण प्रान्त तथा अवन्ती देश के योद्धा थे। उनके पीछे पुलिन्द, पारद, क्षुद्रक तथा मालवदेशीय वीरों के साथ प्रतापी द्रोणाचार्य थे।

प्रजानाथ! द्रोण के पीछे मागध, कलिंग और पिशाच सैनिकों के साथ प्रतापी राजा भगदत्त जा रहे थे, जो बड़े सावधान थे। प्राग्ज्योतिषपुर नरेश के पीछे कोसल देश के राजा बृहद्बल थे, जो मेकल, कुरुविन्द तथा त्रिपुरा के सैनिकों के साथ थे। बृहद्वल के बाद शूरवीर त्रिगर्त थे, जो प्रस्थला के अधिपति थे। उनके साथ बहुत-से काम्बोज और सहस्रों यवन योद्धा थें। भारत! त्रिगर्त के पीछे वेगशाली वीर अश्वत्थामा चल रहे थे, जो अपने सिंहनाद से समस्त धरातल को निनादित कर रहे थे। अश्वत्थामा के पीछे सम्पूर्ण सेना तथा भाइयों से घिरा हुआ राजा दुर्योधन चल रहा था। दुर्योधन के पीछे शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य चल रहे थे। इस प्रकार यह सागर के समान महाव्यूह युद्ध के लिये प्रस्थान कर रहा था। प्रभो! उस सेना में बहुत-सी पताकाएं और श्वेतच्छत्र शोभा पा रहे थे। विचित्र रंग के बहुमूल्य बाजूबन्द और धनुष सुशोभित होते थे।

राजन्! आपके सैनिकों का वह महाव्यूह देखकर महारथी युधिष्ठिर ने तुरंत ही सेनापति धृष्टद्युम्न से कहा- ‘महाधनुर्धर द्रुपदकुमार! देखो, शत्रुसेना का व्यूह सागर के समान बनाया गया हैं। तुम भी उसके मुकाबिले में शीघ्र ही अपनी सेना का व्यूह बना लो’। महाराज! तदनन्तर क्रूर स्वभाव वाले धृष्टद्युम्न ने अत्यन्त दारुण श्रङ्गाटक (सिंघाडे़) के आकार वाला व्यूह बनाया, जो शत्रु के व्यूह का विनाश करने वाला था। उसके दोनों श्रृङगों के स्थान में भीमसेन और महारथी सात्यकि कई हजार रथियों, घुड़सवारों और पैदलों के साथ मौजूद थे। भीमसेन और सात्यकि के बीच में यानि उस व्यूह के अग्रभाग में नरश्रेष्ठ श्वेेतवाहन अर्जुन खडे़ हुए, जिनके सारथि साक्षात भगवान श्रीकृष्ण थे। मध्य भाग में राजा युधिष्ठिर तथा माद्रीकुमार पाण्डुनन्दन नकुल-सहदेव थे। इनके बाद सेना सहित अनेक महाधनुर्धर नरेश खडे़ थे, जो व्यूहशास्त्र के पूर्ण विद्वान् थे। उन्होंने इस व्यूह को प्रत्येक अंग और उपांग से परिपूर्ण किया था। इस व्यूह के पिछले भाग में अभिमन्यु, महारथी विराट, हर्ष में भरे हुए द्रौपदी के पांचों पुत्र तथा राक्षस घटोत्कच विद्यमान थे। भरतनन्दन! इस प्रकार अपनी सेना के इस महाव्यूह का निर्माण करके युद्ध की कामना और विजय की अभिलाषा रखने वाले शूरवीर पाण्डव समर भूमि में खडे़ थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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