महाभारत आदि पर्व अध्याय 102 श्लोक 30-53

द्वयधिकशततम (102) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: द्वयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 30-53 का हिन्दी अनुवाद


बाणों और शक्तियों से व्‍याप्त उनका वह तुमुल युद्ध देवासुर-संग्राम के समान भयंकर जान पड़ता था। उस समरांगन में भीष्म ने लोक विख्‍यात वीरों के देखते-देखते उनके धनुष, ध्वजा के अग्रभाग, कवच और मस्‍तक सैकड़ों और हजारों की संख्‍या में काट गिराये। युद्ध में रथ से विचरने वाले भीष्म जी की दूसरे वीरों से बढ़कर हाथ की फुर्ती और आत्‍मरक्षा आदि की शत्रुओं ने भी सराहना की। सम्‍पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भरतकुलभूषण भीष्म जी ने उन सब योद्धाओं को जीतकर कन्याओं को साथ ले भरतवंशियों की राजधानी हस्तिनापुर को प्रस्‍थान किया। राजन्! तब महारथी शाल्वराज ने पीछे से आकर युद्ध के लिये शान्तनुनन्दन भीष्म पर आक्रमण किया। शाल्व के शारीरिक बल की कोई सीमा नहीं थी। जैसे हथिनी के पीछे लगे हुए एक गजराज के पृष्ठभाग में उसी का पीछा करने वाला दूसरा यूथपति दांतों से प्रहार करके उसे विदीर्ण करना चाहता है, उसी प्रकार बलवानों में श्रेष्ठ महाबाहु शाल्वराज स्त्री को पाने की इच्‍छा से ईर्ष्या और क्रोध के वशीभूत हो भीष्म का पीछा करते हुए उनसे बोला-

‘अरे ओ! खड़ा रह, खड़ा रह।’ तब शत्रुसेना का संहार करने वाले पुरुषसिंह भीष्म उसके उसके वचनों को सुनकर क्रोध से व्‍याकुल हो धूमरहित अग्नि के समान जलने लगे और हाथ में धनुष-बाण लेकर खड़े हो गये। उनके ललाट में सिकुड़न आ गयी। महारथी भीष्म ने क्षत्रिय धर्म का आश्रय ले भय और घबराहट छोड़कर शाल्व की ओर अपना रथ लौटाया। उन्हें लौटते देख सब राजा भीष्म और शाल्व के युद्ध में कुछ भाग न लेकर केवल दर्शक बन गये। ये दोनों बलवान् वीर मैथुन की इच्‍छा वाली गौ के लिये आपस में लड़ने वाले दो सांड़ों की तरह हुंकार करते हुए एक-दूसरे से भिड़ गये। दोनों ही बल और पराक्रम से सुशोभित थे। तदनन्तर मनुष्यों में श्रेष्ठ राजा शाल्व शान्तनुनन्दन भीष्म पर सैकड़ों और हजारों शीघ्रगामी बाणों की बौछार करने लगा। शाल्व ने पहले ही भीष्म को पीड़ित कर दिया। यह देखकर सभी राजा आश्रर्यचकित हो गये और ‘वाह-वाह’ करने लगे। युद्ध में उसकी फुर्ती देख सब राजा बड़े प्रसन्न हुए और अपनी वाणी द्वारा शाल्व नरेश की प्रशंसा करने लगे। शत्रुओं की राजधानी को जीतने वाले शान्तनुनन्दन भीष्म ने क्षत्रियों की ये बातें सुनकर कुपित हो शाल्व से कहा- ‘खड़ा रह, खड़ा रह’। फि‍र सारथि से कहा- ‘जहाँ यह राजा शाल्व है, उधर ही रथ ले चलो। जैसे पक्षिराज गरुड़ सर्प को दबोच लेते हैं, उसी प्रकार मैं इसे अभी मार डालता हूँ।

जनमेजय! तदनन्तर कुरुनन्दन भीष्म ने धनुष पर उचित रीति से वारुणास्त्र का संधान किया और उसके द्वारा शाल्वराज के चारों घोड़ों को रौंद डाला। नृपश्रेष्ठ! फि‍र अपने अस्त्रों से राजा शाल्व के अस्त्रों का निवारण करके कुरुवंशी भीष्म ने उसके सारथि को भी मार डाला। तत्‍पश्चात ऐन्द्रास्त्र द्वारा उसके उत्तम अश्वों को यमलोक पहुँचा दिया। नरश्रेष्ठ! उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म ने कन्याओं के लिये युद्ध करके शाल्व को जीत लिया और नृपश्रेष्ठ शाल्व का भी केवल प्राणमात्र छोड़ दिया। जनमेजय! उस समय शाल्व अपनी राजधानी लौट गया और धर्मपूर्वक राज्‍य का पालन करने लगा। इसी प्रकार शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले जो-जो राजा वहाँ स्‍वयंवर देखने की इच्‍छा से आये थे, वे भी अपने-अपने देश को चले गये। प्रहार करने वाले योद्धाओं में श्रेष्ठ भीष्म उन कन्याओं को जीतकर हस्तिनापुर को चल दिये; जहाँ रहकर धर्मात्‍मा कुरुवंशी राजा विचित्रवीर्य इस पृथ्‍वी का शासन करते थे। उनके पिता कुरुश्रेष्ठ नृपशिरोमणि शान्तनु जिस प्रकार राज्‍य करते थे, वैसा ही वे भी करते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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