महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 63 श्लोक 19-37

त्रिषष्टितम (63) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिषष्टितम अध्याय: श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद


जो राजा अन्न का दान करता है, उसके लिये अन्न के पौधे इहलोक और परलोक में भी संपूर्ण मनोबांछित फल देने वाले होते हैं, इसमें संशय नहीं है। जैसे किसान अच्छी वृष्टि मनाया करते हैं, उसी प्रकार पितर भी यह आशा लगाये रहते हैं कि कभी हम लोगों का पुत्र या पौत्र भी हमारे लिये अन्न प्रदान करेगा। ब्राह्मण एक महान प्राणी है। यदि वह ‘मुझे अन्न दो’ इस प्रकार स्‍वयं अन्न की याचना करता है तो मनुष्य को चाहिये कि सकाम भाव से या निष्काम भाव से उसे अन्न दान देकर पुण्य प्राप्त करे।

भारत! ब्राह्मण सब मनुष्यों का अतिथि और सबसे पहले भोजन पाने का अधिकारी है। ब्राह्मण जिस घर पर सदा भिज्ञा मांगने के लिये जाते हैं और वहाँ से सत्कार पाकर लौटते हैं, उस घर की संपत्ति अधिक बढ़ जाती है तथा उस घर का मालिक मरने के बाद महान सौभाग्यशाली कुल में जन्म पाता है। जो मनुष्य इस लोक में सदा अन्न, उत्तम स्थान और मिष्ठान का दान करता है, वह देवताओं से सम्मानित होकर स्वर्गलोक में निवास करता है। नरेश्‍वर! अन्न ही मनुष्यों के प्राण हैं, अन्न में ही सब प्रतिष्ठित है, अतः अन्नदान करने वाला मनुष्य पशु, पुत्र, धन, भोग, बल और रूप भी प्राप्त कर लेता है। जगत में अन्नदान करने वाला पुरुष प्राणदाता और सर्वस्व देने वाला कहलाता है। अतिथि ब्राह्मण को विधिपूर्वक अन्नदान करके दाता परलोक में सुख पाता है और देवता भी उसका आदर करते हैं।

युधिष्ठिर! ब्राह्मण महान प्राणी एवं उत्तम क्षेत्र है। उसमें जो बीज बोया जाता है, वह महान पुण्य फल देने वाला होता है। अन्न का दान ही एक ऐसा दान है, जो दाता और भोक्ता- दोनों को प्रत्यक्ष रूप से संतुष्ट करने वाला होता है। इसके सिवा अन्य जितने दान हैं, उन सबका फल परोक्ष है। भारत! अन्न से ही संतान की उत्पत्ति होती है। अन्न से ही रति की सिद्धि होती है। अन्न से ही धर्म और अर्थ की सिद्धि समझो। अन्न से ही रोगों का नाश होता है। पूर्व कल्प में प्रजापति ने अन्न को अमृत बतलाया है। भूलोक, स्वर्ग और आकाश अन्न रूप ही हैं; क्योंकि अन्न ही सब का आधार है। अन्न का आहार न मिलने पर शरीर में रहने वाले पांचों तत्त्व अलग-अलग हो जाते हैं। अन्न की कमी हो जाने से बड़े-बड़े बलवानों का बल भी क्षीण हो जाता है। निमंत्रण, विवाह और यज्ञ भी अन्न के बिना बन्द हो जाते हैं। नरश्रेष्ठ! अन्न न हो तो वेदों का ज्ञान भी भूल जाता है।

यह जो कुछ भी स्थावर-जंगमरूप जगत है, सब-का-सब अन्न के ही आधार पर टिका हुआ है। अतः बुद्धिमान पुरुषों का चाहिये कि तीनों लोकों में धर्म के लिये अन्न का दान अवश्‍य करें। पृथ्वीनाथ! अन्नदान करने वाले मनुष्य के बल, ओज, यश और कीर्ति का तीनों लोकों में सदा ही विस्तार होता रहता है। भारत! प्राणों का स्वामी पवन मेघों के ऊपर स्थित होता है और मेघ में जो जल है, उसे इन्द्र धरती पर बरसाते हैं। सूर्य अपनी किरणों से पृथ्वी के रसों को ग्रहण करते हैं। वायु देव सूर्य से उन रसों को लेकर फिर भूमि पर बरसाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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