त्रिषष्टितम (63) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिषष्टितम अध्याय: श्लोक 38-52 का हिन्दी अनुवाद
भीष्म जी कहते हैं- नरेश्वर! जब नारद जी ने मुझे इस प्रकार अन्नदान का माहात्म्य बतलाया, तब से मैं नित्य अन्न का दान किया करता था। अतः तुम भी दोषदृष्टि और जलन छोड़कर सदा अन्न-दान करते रहना। राजन! प्रभो! तुम सुयोग्य ब्राह्मणों को विधिपूर्वक अन्न का दान करके उसके पुण्य से स्वर्गलोक को प्राप्त कर लोगे। नरेश्वर! अन्नदान करने वालों को जो लोक प्राप्त होते हैं, उनका परिचय देता हूँ, सुनो। स्वर्ग में उन महामनस्वी अन्नदाताओं के घर प्रकाशित होते रहते हैं। उन गृहों की आकृति तारों के समान उज्ज्वल और अनेकानेक खंभों से सुशोभित होती है। वे गृह चन्द्रमण्डल के समान उज्ज्वल प्रतीत होते हैं। उन पर छोटी-छोटी घंटियों से युक्त झालरें लगी हैं। उनमें से कितने ही भवन प्रातःकाल के सूर्य की भाँति लाल प्रभा से युक्त हैं, कितने ही स्थावर हैं और कितने ही विमानों के रूप में विचरते रहते हैं। उनमें सैकड़ों कक्षाऐं और मंजिलें होती हैं। उन घरों के भीतर जलचर जीवों सहित जलाशय होते हैं। कितने ही घर वैदूर्य मणिमय (नील) सूर्य के समान प्रकाशित होते हैं। कितने ही चांदी और सोने के वने हुए हैं। उन भवनों में अनेकानेक वृक्ष शोभा पाते हैं, जो संपूर्ण मनोवांछित फल देने वाले हैं। उन गृहों में अनेक प्रकार की बावड़ियाँ, गलियाँ, सभाभवन, कूप, तालाब और गंभीर घोष करने वाले सहस्रों जुते रथ आदि वाहन होते हैं। वहाँ भक्ष-भोज्य पदार्थों के पर्वत, वस्त्र और आभूषण हैं। वहाँ की नदियाँ दूध बहाती हैं। अन्न के पर्वतोंषम ढेर लगे रहते हैं। उन भवनों में सफेद बादलों के समान अट्टालिकाऐं और सुवर्ण निर्मित प्रकाशपूर्ण शैय्याऐं शोभा पाती हैं। वे महल अन्नदाता पुरुषों को प्राप्त होते हैं; इसलिये तुम भी अन्नदान करो। ये पुण्यजनित लोक अन्नदान करने वाले महामनस्वी पुरुषों को प्राप्त होते हैं। अतः इस पृथ्वी पर सभी मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक अन्न का दान करना चाहिये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तगर्त दानधर्म पर्व में अन्नदान की प्रशंसा विषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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