एकादश (11) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- "तात! भरतश्रेष्ठ! कैसे पुरुष में और किसी तरह की स्त्रियों में लक्ष्मी नित्य निवास करती है? पितामह! यह मुझे बताइये।" भीष्म जी ने कहा- "राजन! इस विषय में एक यथार्थ वृत्तान्त को मैंने जैसा सुना है, उसी के अनुसार तुम्हें बता रहा हूँ। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण के समीप रुक्मिणी देवी ने साक्षात लक्ष्मी से जो कुछ पुछा था, वह मुझसे सुनो। भगवान नारायण के अंक में बैठी हुई कमल के समान कान्ति वाली लक्ष्मी देवी को अपनी प्रभा से प्रकाशित होती देख जिसके मनोहर नेत्र आश्चर्य से खिल उठे थे, उन प्रद्युम्नजननी रुक्मिणी देवी ने कौतूहलवश लक्ष्मी से पूछा- 'महर्षि भृगु की पुत्री तथा त्रिलोकीनाथ भगवान नारायण की प्रियतमे! देवि! तुम इस जगत में किन प्राणियों पर कृपा करके उनके यहाँ रहती हो? कहाँ निवास करती हो और किन-किन का सेवन करती हो? उन सबको मुझे यथार्थ रूप से बताओ।' रुक्मिणी के इस प्रकार पूछने पर चन्द्रमुखी लक्ष्मी देवी ने प्रसन्न होकर भगवान गरुडध्वज के सामने ही मीठी वाणी में यह वचन कहा। लक्ष्मी बोलीं- 'देवि! मैं प्रतिदिन ऐसे पुरुष में निवास करती हूँ, जो सौभाग्यशाली, निर्भीक, कार्यकुशल, कर्मपरायण, क्रोधरहित, देवाराधनातत्पर, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय तथा बढ़े हुए सत्वगुण से युक्त हो। जो पुरुष अकर्मण्य, नास्तिक, वर्णसंकर, कृतघ्न, दुराचारी, क्रूर, चोर तथा गुरुजनों के दोष देखने वाला हो, उसके भीतर मैं निवास नहीं करती हूँ। जिनमें तेज, बल, सत्व और गौरव की मात्रा बहुत थोड़ी है, जो जहाँ-तहाँ हर बात में खिन्न हो उठते हैं, जो मन में दूसरा भाव रखते हैं, ऊपर से कुछ और ही दिखाते हैं, ऐसे मनुष्यों में मैं निवास नहीं करती हूँ। जो अपने लिये कुछ नहीं चाहता, जिसका अन्त:करण मूढ़ता से आच्छन्न है, जो थोड़े में ही संतोष कर लेते हैं, ऐसे मनुष्यों में मैं भली-भाँति नित्य निवास नहीं करती हूँ। जो स्वभावत: स्वधर्मपरायण, धर्मज्ञ, बड़े-बूढ़ों की सेवा में तत्पर, जितेन्द्रिय, मन को वश में रखने वाले, क्षमाशील, और सामर्थ्यशाली हैं, ऐसे पुरुषों में तथा क्षमाशील एवं जितेन्द्रिय अबलाओं में भी मैं निवास करती हूँ। जो स्त्रियाँ स्वभावत: सत्यवादिनी तथा सरलता से संयुक्त हैं, जो देवताओं और द्विजों की पूजा करने वाली हैं, उनमें भी मैं निवास करती हूँ। जो अपने समय को कभी व्यर्थ नहीं जाने देते, सदा दान एवं शौचाचार में तत्पर रहते हैं, जिन्हें ब्रह्मचर्य, तपस्या, ज्ञान, गौ और द्विज परम प्रिय हैं, ऐसे पुरुषों में मैं निवास करती हूँ। जो स्त्रियाँ कमनीय गुणों से युक्त, देवताओं तथा ब्राह्मणों की सेवा में तत्पर, घर के बर्तन-भांड़ों को शुद्ध तथा स्वच्छ रखने वाली एवं गौओं की सेवा तथा धान्य के संग्रह में तत्पर होती हैं, उनमें भी मैं सदा निवास करती हूँ। जो घर के बर्तनों को सुव्यवस्थित रूप से न रखकर इधर-उधर बिखेरे रहती हैं, सोच-समझकर काम नहीं करती हैं, सदा अपने पति के प्रतिकूल ही बोलती हैं, दूसरों के घरों में घूमने-फिरने में आसक्त रहती हैं और लज्जा को सर्वथा छोड़ बैठती हैं, उनको मैं त्याग देती हूँ। जो स्त्री निर्दयतापूर्वक पापाचार में तत्पर रहने वाली, अपवित्र, चटोर, धैर्यहीन, कलहप्रिय, नींद में बेसुध होकर सदा खाट पर पड़ी रहने वाली होती है, ऐसी नारी से मैं सदा दूर ही रहती हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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