महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 112 श्लोक 1-18

द्वादशाधिकशततम (112) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा

युधिष्ठिर ने पूछा- ब्रह्मन! आपने अधर्म की गति बतायी। पापरहित वक्ताओं में श्रेष्ठ! अब मैं धर्म की गति सुनना चाहता हूँ। मनुष्य पाप कर्म करके कैसे शुभगति को प्राप्त होते हैं तथा किस कर्म के अनुष्ठान से उन्हें उत्तम गति प्राप्त होती है?

बृहस्पति जी ने कहा- राजन! जो मनुष्य पापकर्म करके अधर्म के वशीभूत हो जाता है, उसका मन धर्म के विपरीत मार्ग में जाने लगता है; इसलिये वह नरक में गिरता है। परंतु जो अज्ञानवश अधर्म बन जाने पर पुनः उसके लिये पश्चाताप करता है, उसे चाहिये कि मन को वश में रखकर वह फिर कभी पाप का सेवन न करे। मनुष्य का मन ज्यों-ज्यों पापकर्म की निंदा करता है, त्यों-त्यों उसका शरीर उस अधर्म के बन्धन से मुक्त होता जाता है।

राजन! यदि पापी पुरुष धर्मज्ञ ब्राह्मण से अपना पाप बता दे तो वह उस पाप के कारण होने वाली निंदा से शीघ्र ही छुटकारा पा जाता है। मनुष्य अपने मन को स्थिर करके जैसे-जैसे अपना पाप प्रकट करता है, वैसे-वैसे वह मुक्त होता जाता है। ठीक उसी तरह जैसे सर्प पूर्वमुक्त, जराजीर्ण कैचुल से छूट जाता है। मनुष्य एकाग्रचित्त होकर सावधान हो ब्राह्मण को यदि नाना प्रकार के दान करे तो वह उत्तम गति को पाता है।

युधिष्ठिर! अब मैं उन उत्कृष्ट दानों का वर्णन करूंगा, जिन्हें देकर मनुष्य यदि उससे न करने योग्य कर्म बन जायें तो भी धर्म के फल से संयुक्त होता है। सब प्रकार के दानों में अन्न का दान श्रेष्ठ बताया गया है। अतः धर्म की इच्छा रखने वाले मनुष्य को सरल भाव से पहले अन्न का ही दान करना चाहिये। अन्न मनुष्यों का प्राण है, अन्न से ही प्राणी का जन्म होता है, अन्न के ही आधार पर सारा संसार टिका हुआ है। इसलिये अन्न सबसे उत्तम माना गया है। देवता, ऋषि, पितर और मनुष्य अन्न की ही प्रशंसा करते हैं। अन्न के ही दान से राजा रंतिदेव स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं। अतः स्वाध्याय में तत्पपर रहने वाले ब्राह्मणों के लिये प्रसन्नचित्त से न्यायोपार्जित उत्तम अन्न का दान करना चहिये। जिस पुरुष के प्रसन्नचित्त से दिये हुए अन्न को एक हज़ार ब्राह्मण खा लेते हैं, वह पशु-पक्षी की योनि में नहीं जन्म लेता।

नरश्रेष्ठ! जो मनुष्य सदा योग साधना में संलग्न रहकर दस हज़ार ब्राह्मणों को भोजन करा देता है, वह पाप के बन्धन से मुक्त हो जाता है। वेदज्ञ ब्राह्मण भिक्षा से अन्न लाकर यदि स्वाध्यायपरायण विप्र को दान देता है तो इस लोक में सुखी होता है। जो भिक्षा से भी अन्न लाकर ब्राह्मण को देता है और सुवर्ण का दान करता है, उसके बहुत-से पाप भी नष्ट हो जाते हैं। जीविका चलाने वाली भूमि का दान करके भी मनुष्य पातक से मुक्त हो जाता है। पुराणों के पाठ से भी ब्राह्मण पातकों से छुटकारा पा जाता है। एक लाख गायत्री जपने से, एक हज़ार गौओं को तृप्त करने से, विशुद्ध ब्राह्मण को यथार्थ रूप से वेदार्थ का ज्ञान कराने से तथा सर्वस्व के त्याग आदि से भी द्विज पापमुक्त हो जाता है। इन सब में सबका अन्न के द्वारा आथित्य सत्कार करना ही सबसे श्रेष्ठ कर्म है। इसलिये अन्न को सबसे उत्तम माना गया है।

धर्मात्मा पांडुनन्दन! जो क्षत्रिय ब्राह्मण के धन का अपहरण न करके न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए अपने बाहुबल से प्राप्त किया हुआ अन्न वेदवेत्ता ब्राह्मण को भलीभाँति शुद्ध एवं समाहित चित्त से दान करता है, वह उस अन्नदान के प्रभाव से अपने पूर्वकृत पापों का नाश कर डालता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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