"महाभारत वन पर्व अध्याय 282 श्लोक 54-71" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: द्वयशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 54-71 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: द्वयशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 54-71 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
‘तब मैंने सम्पाती के समक्ष आप पर संकट आने का यह सारा वृत्तान्त और अपने आमरण अनशन का कारण विस्तार पूर्वक बताया। ‘तब पक्षिराज [[सम्पाती  |सम्पाती ]] ने अपने निम्नांकित वचन द्वारा हमें उत्साहित करके उठाया। ‘वानरों!  मैं रावण को जानता हूँ। उसकी महापुरी लंका भीद मैंने देखी है। वह समूद्र के उस पास त्रिकूटगिरी की कन्दरा में बसी है। विदेहकुमारी सीता अवश्य वहीं होंगी, इस विषय में मुझे कोई अन्यथा विचार नहीं हो रहा है’। परंतप!  उसकी यह बात सुनकर हमलोग तुरंत उठे और समुद्र पार करने के विषय में परस्पर सलाह करने लगे। ‘जब कोई भी समुद्र को लाँघने का साहस न कर सका, तब मैं अपने पिता वायु के स्वरूप में प्रविष्ट होकर वह सौ योजन विस्तृत महासागर लाँघ गया। उस समय समुद्र के जल में एक राक्षसी रहती थी, जिसे अपने मार्ग में विघ्न डालने पर मैंने मार डाला था। लंका में पहुँचकर रावण के अन्तःपुर में मैने सीता का दर्शन किया, जो अपने पतिदेवता के दर्शन की लालसा से निरन्तर उपवास और तपस्या किया करती हैं।
 
  
‘उनके केश जटा के रूप में परिणज हो गये थे। अंग-अंग में मैल जम गयी थी। वे दीन, दुर्बल और तपस्विनी दिखायी देती थीं। कई भिन्न-भिन्न कारणों से उन्हें आर्या सीता के रूप में पहचानकर मैं एकान्त में उनके निकट गया और इस प्रकार बोला- ‘देवी सीते! मैं श्रीरामचन्द्रजी का दूत पवनपुत्र हनुमान् नामक वानर हूँ। ‘आपके दर्शन के लिये में आकाशउ मार्ग से यहाँ आया हूँ। दोनों भाई राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण कुशल से हैं। ‘सम्पूर्ण वानरों के अधीश्वर सुग्रीव इस समय उनकी रक्षा में तत्पर हैं। देवि! सुमित्रानन्दन लक्ष्मण के साथ भगवान  श्रीराम ने आपको अपने सकुशल होने का समाचार कहलाया है। ‘उनके मित्र होने के नाते सुग्रीव भी आपका कुशल मंगल पूछते हैं। आपके स्वामी भगवान  श्रीराम सम्पूर्ण वानरों की सेना के साथ शीघ्र यहाँ पधारेंगे। देवि!  मेरा विश्वास कीजिये। मैं राक्षस नहीं, वानर हूँ।
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‘तब मैंने सम्पाती के समक्ष आप पर संकट आने का यह सारा वृत्तान्त और अपने आमरण अनशन का कारण विस्तारपूर्वक बताया। तब पक्षिराज [[सम्पाती]] ने अपने निम्नांकित वचन द्वारा हमें उत्साहित करके उठाया। 'वानरों! मैं [[रावण]] को जानता हूँ। उसकी महापुरी [[लंका]] भी मैंने देखी है। वह समूद्र के उस पार त्रिकूटगिरी की कन्दरा में बसी है। विदेहकुमारी [[सीता]] अवश्य वहीं होंगी, इस विषय में मुझे कोई अन्यथा विचार नहीं हो रहा है’। परंतप! उसकी यह बात सुनकर हम लोग तुरंत उठे और समुद्र पार करने के विषय में परस्पर सलाह करने लगे। जब कोई भी समुद्र को लाँघने का साहस न कर सका, तब मैं अपने पिता वायु के स्वरूप में प्रविष्ट होकर वह सौ योजन विस्तृत महासागर लाँघ गया। उस समय समुद्र के जल में एक राक्षसी रहती थी, जिसे अपने मार्ग में विघ्न डालने पर मैंने मार डाला था।
  
‘तदनन्तर सीता ने दा घड़ी तक कुछ सोचकर मुझसे इस प्रकार कहा- ‘महाबाहो!  मैं अविन्ध्य के कहने से यह विश्वास करती हूँ कि तुम हनुमान् हो। अविन्ध्य राक्षसकुल में उत्पन्न होते हुए भी वृद्ध एवं आदरणीय है। ‘उन्होंने ही तुम्हारे जैसे मन्त्रियों से युक्त सुग्रीव का परिचय दिया है। वत्स!  अब तुम भगवान  श्रीराम के पास जाओ।’ ऐसा कहकर सती साध्वी सीता ने अपनी पहचान के लिये यह एक मणि दी, जिसको धारण करके वे अब तक अपने प्राणों की रक्षा करती आयी हैं। जानकी ने विश्वास दिलाने के लिये यह एक कथा सुनायी- ‘पुरुषसिंह! उस कथा का मुख्य विषय यह है कि आपने महापर्वत चित्रकूट पर रहते समय किसी कौए के ऊपर एक सींक का बाण चलाया था और उस दुष्टात्मा कौए को एक आँचा से वंचित कर दिया था। यह प्रसंग उन्होंने केवल अपनी पहचान कराने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया था। ‘तदनन्तर मैंने जरन-बूझकर अपने आपको राक्षासों द्वारा पकड़वाया और लंकापुरी को जलाकर समुद्र के इस पार आ पहुँचा।’ यह सब समाचार सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने प्रियवादी हनुमान् का अत्यन्त आदर-सत्कार किया।
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लंका में पहुँचकर रावण के अन्तःपुर में मैने सीता का दर्शन किया, जो अपने पतिदेवता के दर्शन की लालसा से निरन्तर उपवास और तपस्या किया करती हैं। उनके केश जटा के रूप में परिणत हो गये थे। अंग-अंग में मैल जम गयी थी। वे दीन, दुर्बल और तपस्विनी दिखायी देती थीं। कई भिन्न-भिन्न कारणों से उन्हें आर्या सीता के रूप में पहचानकर मैं एकान्त में उनके निकट गया और इस प्रकार बोला- ‘देवी सीते! मैं श्रीरामचन्द्र जी का दूत पवनपुत्र [[हनुमान]] नामक वानर हूँ। आपके दर्शन के लिये में आकाश मार्ग से यहाँ आया हूँ। दोनों भाई राजकुमार [[राम|श्रीराम]] और [[लक्ष्मण]] कुशल से हैं। सम्पूर्ण वानरों के अधीश्वर [[सुग्रीव]] इस समय उनकी रक्षा में तत्पर हैं। देवि! सुमित्रानन्दन लक्ष्मण के साथ भगवान श्रीराम ने आपको अपने सकुशल होने का समाचार कहलाया है। उनके मित्र होने के नाते सुग्रीव भी आपका कुशलमंगल पूछते हैं। आपके स्वामी भगवान श्रीराम सम्पूर्ण वानरों की सेना के साथ शीघ्र यहाँ पधारेंगे। देवि! मेरा विश्वास कीजिये। मैं राक्षस नहीं, वानर हूँ।'
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत रामोख्यान पर्व में हनुमानजी के लंका से लौटने से सम्बन्ध रखने वाला दो सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
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तदनन्तर सीता ने दो घड़ी तक कुछ सोचकर मुझसे इस प्रकार कहा- ‘महाबाहो! मैं अविन्ध्य के कहने से यह विश्वास करती हूँ कि तुम हनुमान् हो। अविन्ध्य राक्षसकुल में उत्पन्न होते हुए भी वृद्ध एवं आदरणीय है। उन्होंने ही तुम्हारे जैसे मन्त्रियों से युक्त सुग्रीव का परिचय दिया है। वत्स! अब तुम भगवान श्रीराम के पास जाओ।’ ऐसा कहकर सती साध्वी सीता ने अपनी पहचान के लिये यह एक मणि दी, जिसको धारण करके वे अब तक अपने प्राणों की रक्षा करती आयी हैं। जानकी ने विश्वास दिलाने के लिये यह एक कथा सुनायी- ‘पुरुषसिंह! उस कथा का मुख्य विषय यह है कि आपने महापर्वत चित्रकूट पर रहते समय किसी कौए के ऊपर एक सींक का बाण चलाया था और उस दुष्टात्मा कौए को एक आँक्ग से वंचित कर दिया था। यह प्रसंग उन्होंने केवल अपनी पहचान कराने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया था। तदनन्तर मैंने जान-बूझकर अपने आपको राक्षासों द्वारा पकड़वाया और लंकापुरी को जलाकर समुद्र के इस पार आ पहुँचा।’ यह सब समाचार सुनकर श्रीरामचन्द्र जी ने प्रियवादी [[हनुमान]] का अत्यन्त आदर-सत्कार किया।
  
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोख्यानपर्व में हनुमानजी के लंका से लौटने से सम्बन्ध रखने वाला दो सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
 
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13:16, 19 मार्च 2018 के समय का अवतरण

द्वयशीत्यधिकद्वशततम (282) अध्‍याय: वन पर्व (रामोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्वयशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 54-71 का हिन्दी अनुवाद


‘तब मैंने सम्पाती के समक्ष आप पर संकट आने का यह सारा वृत्तान्त और अपने आमरण अनशन का कारण विस्तारपूर्वक बताया। तब पक्षिराज सम्पाती ने अपने निम्नांकित वचन द्वारा हमें उत्साहित करके उठाया। 'वानरों! मैं रावण को जानता हूँ। उसकी महापुरी लंका भी मैंने देखी है। वह समूद्र के उस पार त्रिकूटगिरी की कन्दरा में बसी है। विदेहकुमारी सीता अवश्य वहीं होंगी, इस विषय में मुझे कोई अन्यथा विचार नहीं हो रहा है’। परंतप! उसकी यह बात सुनकर हम लोग तुरंत उठे और समुद्र पार करने के विषय में परस्पर सलाह करने लगे। जब कोई भी समुद्र को लाँघने का साहस न कर सका, तब मैं अपने पिता वायु के स्वरूप में प्रविष्ट होकर वह सौ योजन विस्तृत महासागर लाँघ गया। उस समय समुद्र के जल में एक राक्षसी रहती थी, जिसे अपने मार्ग में विघ्न डालने पर मैंने मार डाला था।

लंका में पहुँचकर रावण के अन्तःपुर में मैने सीता का दर्शन किया, जो अपने पतिदेवता के दर्शन की लालसा से निरन्तर उपवास और तपस्या किया करती हैं। उनके केश जटा के रूप में परिणत हो गये थे। अंग-अंग में मैल जम गयी थी। वे दीन, दुर्बल और तपस्विनी दिखायी देती थीं। कई भिन्न-भिन्न कारणों से उन्हें आर्या सीता के रूप में पहचानकर मैं एकान्त में उनके निकट गया और इस प्रकार बोला- ‘देवी सीते! मैं श्रीरामचन्द्र जी का दूत पवनपुत्र हनुमान नामक वानर हूँ। आपके दर्शन के लिये में आकाश मार्ग से यहाँ आया हूँ। दोनों भाई राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण कुशल से हैं। सम्पूर्ण वानरों के अधीश्वर सुग्रीव इस समय उनकी रक्षा में तत्पर हैं। देवि! सुमित्रानन्दन लक्ष्मण के साथ भगवान श्रीराम ने आपको अपने सकुशल होने का समाचार कहलाया है। उनके मित्र होने के नाते सुग्रीव भी आपका कुशलमंगल पूछते हैं। आपके स्वामी भगवान श्रीराम सम्पूर्ण वानरों की सेना के साथ शीघ्र यहाँ पधारेंगे। देवि! मेरा विश्वास कीजिये। मैं राक्षस नहीं, वानर हूँ।'

तदनन्तर सीता ने दो घड़ी तक कुछ सोचकर मुझसे इस प्रकार कहा- ‘महाबाहो! मैं अविन्ध्य के कहने से यह विश्वास करती हूँ कि तुम हनुमान् हो। अविन्ध्य राक्षसकुल में उत्पन्न होते हुए भी वृद्ध एवं आदरणीय है। उन्होंने ही तुम्हारे जैसे मन्त्रियों से युक्त सुग्रीव का परिचय दिया है। वत्स! अब तुम भगवान श्रीराम के पास जाओ।’ ऐसा कहकर सती साध्वी सीता ने अपनी पहचान के लिये यह एक मणि दी, जिसको धारण करके वे अब तक अपने प्राणों की रक्षा करती आयी हैं। जानकी ने विश्वास दिलाने के लिये यह एक कथा सुनायी- ‘पुरुषसिंह! उस कथा का मुख्य विषय यह है कि आपने महापर्वत चित्रकूट पर रहते समय किसी कौए के ऊपर एक सींक का बाण चलाया था और उस दुष्टात्मा कौए को एक आँक्ग से वंचित कर दिया था। यह प्रसंग उन्होंने केवल अपनी पहचान कराने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया था। तदनन्तर मैंने जान-बूझकर अपने आपको राक्षासों द्वारा पकड़वाया और लंकापुरी को जलाकर समुद्र के इस पार आ पहुँचा।’ यह सब समाचार सुनकर श्रीरामचन्द्र जी ने प्रियवादी हनुमान का अत्यन्त आदर-सत्कार किया।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोख्यानपर्व में हनुमानजी के लंका से लौटने से सम्बन्ध रखने वाला दो सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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