महाभारत सभा पर्व अध्याय 79 भाग-4

एकोनाशीतितम (79) अध्‍याय: सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: एकोनाशीतितम अध्याय: भाग-3 का हिन्दी अनुवाद


हम अपने घरों की गड़ी हुई निधि निकाल लें। आँगन की फर्श खोद डालें। धन-धान्‍य साथ ले लें। सारी आवश्‍यक वस्‍तुएँ हटा लें। इनमें चारों ओर धूल भर जाय। देवता इन घरों को छोड़कर भाग जायँ। चूहे बिल से बाहर निकलकर इनमें चारों ओर दौड़ लगाने लगे। इनमें न कभी आग जले, न पानी रहे और न झाडू ही लगे। यहाँ बलिवैश्‍वदेव, यज्ञ, मन्‍त्र पाठ, होम और जप बंद हो जाय। मानो बड़ा भारी अकाल पड़ गया हो, इस प्रकार ये सारे घर ढह जायँ। इनमें टूटे बर्तन बिखरे पड़े हो और हम सदा के लिये इन्‍हें छोड़ दें- ऐसी दशा में इन घरों पर कपटी सुबलपुत्र शकुनि अधिकार कर ले। अब जहाँ पाण्डव जा रहे हैं, वह वन ही नगर हो जाय और हमारे छोड़ देने पर यह नगर ही वन के रूप में परिणत हो जाय। वन में हम लोगों के भय से साँप अपने बिल छोड़कर भाग जायँ मृग और पक्षी जंगलों को छोड़ दें तथा हाथी और सिंह भी वहाँ से दूर चले जायँ। हम लोग तृण (साग-पात), अन्‍न और फल का उपयोग करने वाले हैं। जंगल के हिंसक पशु और पक्षी हमारे रहने के स्‍थानों को छोड़कर चल जायँ। वे ऐसे स्‍थान का आश्रय लें, जहाँ हम न जायँ और वे उन स्‍थानों को छोड़ दें, जिनका हम सेवन करें। हम लोग वन में कुन्‍तीपुत्रों के साथ बड़े सुख से रहेंगे।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार भिन्‍न-भिन्‍न मनुष्‍यों की कही हुई भाँति-भाँति की बातें युधिष्ठिर ने सुनीं। सुनकर भी उनके मन में कोई विकार नहीं आया। तदनन्‍तर चारों ओर महलों में रहने वाली ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की स्त्रियाँ अपने-अपने भवनों की खिड़कियों के पर्दे हटाकर दीन पाण्‍डवों को देखने लगीं। सब पाण्‍डवों ने मृगचर्ममय वस्त्र धारण कर रखा था। उनके साथ द्रौपदी भी पैदल ही चली जा रही थी। उसे उन स्त्रियों ने पहले कभी नहीं देखा था। उसके शरीर पर एक ही वस्त्र था, कैश खुले हुए थे, वह रजस्‍वला थी और रोती चली जा रही थी। उसे देखकर उस समय सब स्त्रियों का मुख उदास हो गया। वे क्षोम एवं मोह के कारण नाना प्रकार सें विलाप करती हुई दु:ख शोक से पीड़ित हो गयीं और ‘हाय हाय! इन धृतराष्ट्रपुत्रों को बार-बार धिक्‍कार है, धिक्‍कार है’ ऐसा कहकर नेत्रों से आँसू बहाने लगीं। उसके वस्त्र खींचे जाने (एवं वन में जाने) आदि का सारा वृत्तान्‍त सुनकर कौरवों की अत्‍यन्‍त निन्‍दा करती हुई फूट-फूटकर रोने लगीं और अपने मुखार विन्‍द को हथेली पर रखकर बहुत देर तक गहरी चिन्‍ता में डूबी रहीं। उस समय अपने पुत्रों के अन्‍याय का चिन्‍तन करके राजा धृतराष्ट्र का भी हृदय उद्विग्न हो उठा। उन्‍हें तनिक भी शान्ति नहीं मिली। चिन्‍ता में पड़े-पड़े उनकी एकाग्रता नष्ट हो गयी। उनका चित्त शोक से व्‍याकुल हो रहा था। उन्‍होंने विदुर के पास संदेश भेजा कि तुम शीघ्र मेरे पास चले आओ। तब विदुर राजा धृतराष्ट्र के महल में गये। उस समय महाराज धृतराष्ट्र ने अत्‍यन्‍त उद्विग्न होकर उनसे पूछा।


इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अनुद्यूत पर्व में द्रौपदी-कुन्तीसंवाद-विषयक नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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