महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 59-66

पंचम (5) अध्‍याय: सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: पंचम अध्याय: श्लोक 59-66 का हिन्दी अनुवाद


  • शत्रुदमन! क्या तुम पार्ष्णिग्राह आदि बारह[1]व्यक्तियों के मण्डल[2] को जानकर अपने कर्तव्य[3] का निश्चय करके और पराजय मूलक व्यसनों[4] का अपने पक्ष में अभाव तथा शत्रु पक्ष में आधिक्य देखकर उचित अवसर आने पर दैव का भरोसा करके अपने सैनिकों को अग्रिम वेतन देकर शत्रु पर चढ़ाई कर देते हो? (59)
  • परंतप! शत्रु के राज्य में जो प्रधान-प्रधान योद्धा हैं, उन्हें छिपे-छिपे यथायोग्य रत्न आदि भेंट करते रहते हो या नहीं ? (60)
  • कुन्तीनन्दन! क्या तुम पहले अपनी इन्द्रियों और मन को जीत कर ही प्रमाद में पड़े हुए अजितेन्द्रिय शत्रुओं को जीतने की इच्छा करते हो? (61)
  • शत्रुओें पर तुम्हारे आक्रमण करने से पहले अच्छी तरह प्रयोग में लाये हुए तुम्हारे साम, दान, भेद और दण्ड- ये चार गुण विधिपूर्वक उन शत्रुओं तक पहुँच जाते हैं न?[5] (62)
  • महाराज! तुम अपने राज्य की नींव को दृढ़ करके शत्रुओं पर धावा करते हो न? उन शत्रुओं को जितने के लिये पूरा पराक्रम प्रकट करते हो न? और उन्हें जीत कर उनकी पूर्ण रूप से रक्षा तो करते रहते हो न? (63)
  • क्या धनरक्षक, द्रव्यसंग्राहक, चिकित्सक, गुप्तचर, पाचक, सेवक, लेखक और प्रहरी- इन आठ अंगों और हाथी, घोड़े, रथ एवं पैदल- इन चार[6] प्रकार के बलों से युक्त तुम्हारी सेना सुयोग्य सेनापतियों द्वारा अच्छी तरह संचालित होकर शत्रुओं का संहार करने में समर्थ होती है? (64)
  • शत्रुओं को संतप्त करने वाले महाराज! तुम शत्रुओं के राज्य में अनाज काटने और दुर्भिक्ष के समय की उपेक्षा न करके रणभूमि में शत्रुओं को मारते हो न? (65)
  • क्या अपने और शत्रु के राष्ट्रों में बहुत-से अधिकारी स्थान-स्थान में घूम-फिरकर प्रजा को वश में करने एवं कर लेने आदि प्रयोजनों को सिद्ध करते हैं और परस्पर मिलकर राष्ट्र एवं अपने पक्ष के लोगों की रक्षा में लगे रहते हैं? (66)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विजय के इच्छुक राजा के आगे खड़े होने वाले उस के शत्रु के शत्रु 2, उन शत्रुओं के मित्र 2, उन मित्रों के मित्र 2 - ये छः व्यक्ति युद्ध में आगे खड़े होते हैं। विजिगीषु के पीछे पार्ष्णिग्रह(पृष्ठरक्षक) और आक्रन्द(उत्साह दिलाने वाला)- ये दो व्यक्ति खड़े होते हैं। इन दोनों की सहायता करने वाले एक-एक व्यक्ति इनके पीछे खड़े होते हैं, जिनकी आसार संज्ञा है। ये क्रमशः पार्ष्णिग्राहासार और आक्रन्दासार कहे जाते हैं। इस प्रकार आगे के छः और पीछे के चार मिलकर कहे जाते हैं। विजिगीषु के पार्श्व भाग में मध्यम और उसके भी पार्श्व भाग में उदासीन होता है। इन दोनों को जोड़ लेने से इन सबकी संख्या बारह होती है। इन्हीं को द्वादश राजतण्डल अथवा ‘पार्ष्णिमूल’ कहते हैं। अपने और शत्रु पक्ष के इन व्यक्तियों को जानना चाहिये।
  2. समुदाय
  3. नीति शास्त्र के अनुसार विजय की इच्छा रखने वाले राजा को चाहिये कि वह शत्रु पक्ष के सैनिकों में से जो लोभी हो, किंतु जिसे वेतन न मिला हो, जो मानी हो किंतु किसी तरह अपमानित हो गया हो, जो क्रोधी हो और उसे क्रोध दिलाया गया हो, जो स्वभाव से ही डरने वाला हो और उसे पुनः डरा दिया गया हो- इन चार प्रकार के लोगों को फोड़ ले और अपने पक्ष में ऐसे लोग हों, तो उन्हें उचित सम्मान देकर मिला ले।
  4. व्यसन दो प्रकार के हैं- दैव और मानुष। दैव व्यसन पाँच प्रकार के हैं- अग्नि, जल, व्याधि, दुर्भिक्ष और महामारी। मानुष व्यसन भी पाँच प्रकार का है- मूर्ख पुरुषों से, चोरों से, शत्रुओं से, राजा के प्रिय व्यक्ति से तथा राजा के लोभ से प्रजा को प्राप्त भय। (नीलकंठी टीका के अनुसार)
  5. क्योंकि शत्रुओं को वश में करने के लिये इनका प्रयोग आवश्यक है।
  6. आठ अंग और चार बल भारत कौमुदी टीका के अनुसार लिये गये हैं।

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