महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 345 श्लोक 20-28

पंचचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (345 ) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 20-28 का हिन्दी अनुवाद


जीन पितर मूर्तिहीन या अमूर्त होते हैं, जो पिण्डरूप मुर्ति धारण करके प्रकट हुए हैं, लोक में मेरे द्वारा उत्पन्न किये गये ये सनातन वितर हों। पिता, पितामह और प्रपितामह-‘ इनके रूप में मुझे ही इन तीन पिण्डों में सिथत जानना चाहिये। मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है; फिर दूसरा कौन है जिसका स्वयं मैं पूजन करूँ ? संसार में मेरा पिता कौन है , सबका दादा-बाबा तो में ही हूँ। पितामह पिता परदादा भी मैं ही हूँ। मैं ही इा जगत् का कारण हूँ। विप्रवर! ऐसा बात कहकर देवाधिदेव भगवान वराह ने वराह पर्वत विस्तार पूर्वक पिण्डदान दे पितरों के ष्प में अपने आपका ही पूजन करके वहीं अन्तर्धान हो गये। ब्रह्मन्! यह भगवान की ही नियत की हुई मर्यादा है। इस प्रकार पितरों को पिण्डसंज्ञा प्राप्त हुई है। भगवान वराह के कथनानुसार वे पितर सदा सबक द्वारा पूजा प्राप्त करते हैं। जो देवता, पितर, गुरु, अतिथि, गौ, श्रेष्ठ ब्राह्मण, पृथ्वी और माता की मन, वाणी एवं क्रिया द्वारा पूजा करते हैं, वे वास्तव में भगवान विष्णु की ही आराधना करते हैं; क्योंकि भगवान विष्णु समस्त प्राणियों के शरीर में अन्तरात्मारूप से विराजमान हैं। सुख और दुःख के स्वामी श्रीहरि समस्त प्राणियों में समभाव से स्थित हैं। श्रीनारायण महान् महात्मा एवं सर्वात्मा हैं; ऐसा श्रुति में कहा गया है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण की महिमा विषयक तीन सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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