अष्टषष्ट्यधिकद्विशततम (268) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टषष्ट्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 17-33 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद
औषधि (अन्न आदि), पशु, वृक्ष, लता, घी, दूध, दही, अन्यान्य हविष्य, भूमि, दिशा, श्रद्धा और काल- ये बारह यज्ञ के अंग हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और यजमान- ये चार मिलकर सोलह यज्ञांग होते हैं तथा गार्हपत्य अग्नि को सत्रहवाँ यज्ञांग समझना चाहिये। इस प्रकार ये सत्रह अंग बताये जाते हैं। ये सब यज्ञ के अंग हैं और यज्ञ इस जगत की स्थिति का मूल कारण है; ऐसा श्रुति का कथन है। घी, दूध, दही, छाछ, गोबर, चमड़ा, बाल, सींग और पैर- इन सबके द्वारा गौ यज्ञ कर्म का सम्पादन करती है। इस प्रकार इनमें से प्रत्येक वस्तु का, जो-जो विहित है, संग्रह करना चाहिये। ऋत्विक और दक्षिणाओं के साथ ये सब मिलकर यज्ञ का निर्वाह करते हैं। यजमान इन सारी वस्तुओं का संग्रह करके यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। ये सारी वस्तुएँ यज्ञ के लिये रची गयी हैं; यह श्रुति का कथन यथार्थ ही है। पहले के सभी मनुष्य इसी प्रकार यज्ञानुष्ठान में प्रवृत होते आये हैं। यज्ञ का अनुष्ठान अपना कर्तव्य है- ऐसा समझकर जो फल की इच्छा न रखते हुए यज्ञ करता है, वह न तो हिंसा करता है, न किसी से द्रोह करता है और न अहंकारपूर्वक किसी कर्म का आरम्भ ही करता है। यज्ञ शास्त्र में कमश: वर्णित ये सम्पूर्ण यज्ञांग विधिपूर्वक यज्ञ में प्रयुक्त हो एक दूसरे को धारण करते हैं। मैं ऋषियों द्वारा कथित आम्नाय (धर्मशास्त्र) को देखता हूँ, जिसमें सारे वेद प्रतिष्ठित हैं। कर्म में प्रवृति कराने वाले ब्राह्मणग्रन्थ के वाक्यों का उसमें दर्शन होने से विद्वान पुरुष उस आर्षग्रन्थ को प्रमाणभूत मानते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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