चतुर्विंश (24) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्विंश अध्याय: श्लोक 18-28 का हिन्दी अनुवाद
नरेश्वर! जो लोग राजा की ओर से सुरक्षित न होने के कारण अनावृष्टि आदि दैवी आपत्तियों से तथा चोरों के उपद्रव से नष्ट हो जाते हैं, उनके इस विनाश का सारा पाप राजा को ही लगता है। युधिष्ठिर! अच्छी तरह मन्त्रणा की गयी हो, सुन्दर नीति से काम लिया गया हो और सब ओर से पुरुषार्थपूर्वक प्रयत्न किये गये हों (उस अवस्था में यदि प्रजा को कोई कष्ट हो जाय) तो राजा को उसका पाप नहीं लगता। आरम्भ किये हुए कार्य दैव की प्रतिकूलता से नष्ट हो जाते हैं और उसके अनुकूल होने पर सिद्ध भी हो जाते हैं; परंतु अपनी ओर से (यथोचित) पुरुषार्थ कर देने पर (यदि कार्य की सिद्धि नहीं भी हुई तो) राजा को पाप का स्पर्श नहीं प्राप्त होता है। राजसिंह पाण्डुकुमार! इस विषय में मैं तुम्हें एक कथा सुना रहा हूँ, जो पूर्व कालवर्ती राजर्षि हयग्रीव के जीवन का वृत्तान्त है। हयग्रीव बड़े शूरवीर और अनायास ही महान् कर्म करने वाले थे। युधिष्ठिर! उन्होंने युद्ध में शत्रुओं को मार गिराया था; परंतु पीछे असहाय हो जाने पर वे संग्राम में परास्त हुए और शत्रुओं के हाथ से मारे गये। उन्होंने शत्रुओं को परास्त करने में जो पराक्रम दिखाया था, मानवीय प्रजा के पालन में जिस श्रेष्ठ उद्योग एवं एकाग्रता का परिचय दिया था, वह अद्भुत था। उन्होंने पुरुषार्थ करके युद्ध से उत्तम कीर्ति पायी और इस समय वे राजा हयग्रीव स्वर्गलोक में आनन्द भोग रहे हैं। वे अपने मन को वश में करके समरागंण में हथियार लेकर शत्रुओं का वध कर रह थे; परंतु डाकुओं ने उन्हें अस्त्र-शस्त्रों से छिन्न-भिन्न करके मार डाला। इस समय कर्मपरायण महामनस्वी हयग्रीव पूर्णमनोरथ होकर स्वर्गलोक में आनन्द कर रहे हैं। उनका धनुष ही यूप था, करधनी प्रत्यांग के समान थी, बाण स्त्रुक् और तलवार स्त्रुवा का काम दे रही थी, रक्त ही घृत के तुल्य था, इच्छानुसार विचरने वाला रथ ही वेदी था, युद्ध अग्नि था और चारों प्रधान घोडे़ ही ब्रह्मा आदि चारों ऋत्विज थे। इस प्रकार वे वेगशाली राजसिंह हयग्रीव उस यज्ञरूपी अग्नि में शत्रुओं की आहुति देकर पाप से मुक्त हो गये तथा अपने प्राणों को होम कर युद्ध की समाप्ति रूपी अवभृथस्नान करके वे इस समय देवलोक में आनन्दित हो रहे हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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