चतुर्नवत्यधिकशततम (194) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्नवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 61-63 का हिन्दी अनुवाद
जो निष्काम भाव से कर्म करता है, उसका वह कर्म पहले के किये हुए समस्त कर्म-संस्कारों का नाश कर देता है। पूर्वजन्म और इस जन्म के किये हुए वे दोनों प्रकार के कर्म उस पुरुष के लिये न तो अप्रिय फल उत्पन्न करते हैं और न तो प्रिय फल के ही जनक होते हैं (क्योंकि कर्तापन के अभिमान और फल की आसक्ति से शून्य होने के कारण उनका उन कर्मों से सम्बन्ध नहीं रह जाता)। जो काम, क्रोध आदि दुर्व्यसनों से आतुर रहता है, उसे विचारवान पुरुष धिक्कारते हैं। उसके निन्दनीय कर्म उस आतुर मानव को सभी योनियों (पशु-पक्षी आदि के शरीरों) में जन्म दिलाता है। लोक में भोगासक्ति के कारण आतुर रहने वाले लोग, स्त्री, पुत्र आदि के नाश होने पर उनके लिये बहुत शोक करते और फूट-फूटकर रोते हैं। तुम उनकी इस दुर्दशा को देख लो। साथ ही जो सारासार-विवेक में कुशल हैं और सत्पुरुषों को प्राप्त होने वाले दो प्रकार के पद को अर्थात सगुण-उपासना और निर्गुण-उपासना के फल को जानते हैं, वे कभी शोक नहीं करते। उनकी अवस्था पर भी दृष्टिपात कर लो (फिर तुम्हें अपने लिये जो हितकर दिखायी दे, उसी पथ का आश्रय लो)। इस प्रकार श्रीमहाभारत में शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में अध्यात्मतत्त्व का वर्णनविषयक एक सौ चौरानबेवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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