चतुसप्तत्यधिकशततम (174) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 58-63 का हिन्दी अनुवाद
पिङग्ला बोली- मेरे सच्चे प्रियतम चिरकाल से मेरे निकट ही रहते हैं। मैं सदा से उनके साथ ही रहती आयी हुँ। वे कभी उन्मत नहीं होते; परंतु मैं ऐसी मतवाली हो गयी थी कि आज से पहले उन्हें पहचान ही न सकी। जिसमें एक ही खंभा और नौ दरवाजे हैं, उस शरीर रूपी घर को आज से मैं दूसरों के लिये बंद कर दूंगी। यहाँ आने वाले उस सच्चे प्रियतम को जानकर भी कौन नारी किसी हाड़–मांस के पुतले को अपना प्राणवल्लभ मानेगी? अब मैं मोहनिद्रा से जग गयी हूँ और निरंतर सजग हूँ- कामनाओं का भी त्याग कर चुकी हूँ। अत: वे नरकरूपी धूर्त मनुष्य काम का रूप धारण करके अब मुझे धोखा नहीं दे सकेंगे। भाग्य से अथवा पूर्वकृत शुभकर्मों के प्रभाव से कभी–कभी अनर्थ भी अर्थरूप हो जाता है, जिससे आज निराश होकर मैं उत्तम ज्ञान से सम्पन्न हो गयी हूँ। अब मैं अजितेन्द्रिय नहीं रही हूँ। वास्तव में जिसे किसी प्रकार की आशा नहीं है, वही सुख से सोता है। आश का न होना ही परम सुख है। देखो, आशा को निराश के रूप में परिणत करके पिंग्ला सुख की नींद सोने लगी। भीष्म जी कहते हैं- राजन! ब्राह्मण के कहे हुए इन पूर्वोक्त तथा अन्य युक्तियुक्त वचनों से राजा सुनजित का चित स्थिर हो गया। वे शोक छोड़कर सुखी हो गये और प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे। इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत मोक्षधर्मपर्व में ब्राह्मण और सेनजित् के संवाद का कथनविषयक एक सौ चौहतरवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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