चत्वारिंशदधिकशततम (140) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 30-44 का हिन्दी अनुवाद
‘जो राजा दण्ड से नतमस्तक हुए शत्रु को पाकर भी उसे नष्ट नहीं कर देता, वह अपनी मृत्यु को आमन्त्रित करता है। ठीक उसी तरह जैसे, खच्चरी मौत के लिये गर्भ धारण करती है। ‘नीतिज्ञ राजा ऐसे वृक्ष के समान रहे, जिसमें फूल तो खूब लगे हों, परंतु फल न हो। फल लगने पर भी उस पर चढ़ना अत्यंत कठिन हो, वह रहे तो कच्चा, पर दीखे पके के समान तथा स्वयं कभी जीर्ण-शीर्ण न हो। ‘राजा शत्रु की आशा पूर्ण होने में विलंब पैदा करे, उसमें विध्न डाल दे। उस विध्न का कुछ कारण बता दे और उस कारण को युक्तिसंगत सिद्ध कर दे। ‘जब तक अपने ऊपर भय न आया हो, तब तक डरे हुए की भाँति उसे टालने का प्रयत्न करना चाहिये; परंतु जब भय को सामने आया हुआ देखे तो निडर होकर शत्रु पर प्रहार करना चाहिये। जहाँ प्राणों का संशय हो, ऐसे कष्ट को स्वीकार किये बिना मनुष्य कल्याण का दर्शन नहीं कर पाता। प्राण-संकट में पड़ कर यदि वह पुन: जीवित रह जाता है तो अपना भला देखता है। ‘भविष्य में जो संकट आने वाले हों, उन्हें पहले से ही जानने का प्रयत्न करे और जो भय सामने उपस्थित हो जाय, उसे दबाने की चेष्टा करे। दबा हुआ भय भी पुन: बढ़ सकता है, इस डर से यही समझे कि अभी वह निवृत ही नहीं हुआ है (और ऐसा समझकर सतत सावधान रहे)। ‘जिसके सुलभ होने का समय आ गया हो, उस सुख को त्याग देना और भविष्य में मिलने वाले सुख की आशा करना- यह बुद्धिमानों की नीति नहीं है। ‘जो शत्रु के साथ संधि करके विश्वासपूर्वक सुख से सोता है, वह उसी मनुष्य के समान है, जो वृक्ष की शाखा पर गाढ़ी नींद में सो गया हो। ऐसा पुरुष नीचे गिरने (शत्रु द्वारा संकट में पड़ने) पर ही सजग या सचेत होता है। ‘मनुष्य कोमल या कठोर, जिस किसी भी उपाय संभव हो, दीनदशा से अपना उद्धार करे। इसके बाद शक्तिशाली हो पुन: धर्माचरण करे। ‘जो लोग शत्रु के शत्रु हों, उन सबका सेवन करना चाहिये। अपने ऊपर शत्रुओं द्वारा जो गुप्तचर नियुक्त किये गये हों, उनको भी पहचानने का प्रयत्न करे। ‘अपने तथा शत्रु के राज्य में ऐसे गुप्तचर नियुक्त करे जिसको कोई जानता-पहचानता न हो। शत्रु के राज्यों में पाखण्डवेषधारी और तपस्वी आदि को ही गुप्तचर बनाकर भेजना चाहिये। ‘वे गुप्तचर बगीचा, घूमने-फिरने के स्थान, पौंसला, धर्मशाला, मदबिक्री के स्थान, नगर के प्रवेशद्वार, तीर्थस्थान और सभाभवन-इन सब स्थलों में विचरें। ‘कपटपूर्ण धर्म का आचरण करने वाले, पापात्मा, चोर तथा जगत के लिये कण्टकरूप मनुष्य वहाँ छद्मवेष धारण करके आते रहते हैं, उन सबका पता लगाकर उन्हें कैद कर ले अथवा भय दिखाकर उनकी पापवृत्ति शांत कर दे। ‘जो विश्वासपात्र नहीं है, उस पर कभी विश्वास न करे, परंतु जो विश्वासपात्र है, उस पर भी अधिक विश्वास न करे; क्योंकि अधिक विश्वास से भय उत्पन्न होता है, अत: बिना जाँचे-बूझे किसी पर भी विश्वास न करे। ‘किसी यथार्थ कारण से शत्रु के मन में विश्वास उत्पन्न करके जब कभी उसका पैर लड़खड़ाता देखे अर्थात उसे कमज़ोर समझे तभी उस पर प्रहार कर दे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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