महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 130 श्लोक 14-26

त्रिंशदधिकशततम (130) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद

भारत! सामर्थ्‍यशाली पुरुषों का धर्म दूसरा है और आपत्तिग्रस्‍त मनुष्‍यों का दूसरा। अत: पहले कोश संग्रह कर लेने पर राजा के लिये धर्मपालन का अवसर प्राप्‍त होता है; क्‍योंकि जीवन-निर्वाह का साधन प्राप्‍त करना धर्म से भी बड़ा है। दुर्बल मनुष्‍य धर्म को पाकर भी न्‍यायोचित जीविका नहीं उपलब्‍ध कर पाता है। धर्माचरण करने से बल की प्राप्ति अवश्‍य हो जायगी, यह निश्चितरूप से नहीं कहा जा सकता; इसलिये आपत्ति काल में अधर्म भी धर्मरूप सुना जाता है। परंतु विद्वान पुरुष ऐसा मानते हैं कि आपत्ति काल में भी धर्म के विरुद्ध आचरण करने से अधर्म होता ही है। आपत्ति दूर होने के बाद क्षत्रिय को क्‍या करना चाहिये? वह प्रायश्चित करे या प्रजा से कर लेना छोड़ दे; यह संशय उपस्थित होता है। इसका समाधान यह है कि वह ऐसा बर्ताव करे जिससे उसके धर्म को हानि न पहुँचे तथा उसे शत्रु के अधीन न होना पड़े। विद्वानों ने उसके लिये यही कर्तव्‍य बतलाया है, वह किसी तरह अपने-आपको संकट में न डाले। संकटकाल में मनुष्‍य अपने या दूसरे के धर्म की ओर न देखे; अपितु सम्‍पूर्ण हृदय से सभी उपायों द्वारा अपने आपके ही उद्धार की अभिलाषा करे, यही सबका निश्‍चय है।

तात! धर्मज्ञ पुरुषों का निश्‍चय जैसे उनकी धर्म-विषयक निपुणता को सूचित करता है, उसी प्रकार बाहुबल से अपनी उन्‍नति के लिये उद्योग करना क्षत्रिय की निपुणता का सूचक है; यह श्रुति का निर्णय है। भरतनन्‍दन! क्षत्रिय यदि आजीविका से रहित हो जाय तो वह तपस्‍वी और ब्राह्मण का धन छोड़कर और किसका धन नहीं ले सकता है (अर्थात सभी का ले सकता है)। जैसे ब्राह्मण यदि जीविका के अभाव में कष्ट पा रहा हो तो वह यज्ञ अनधिकारी से भी यज्ञ करा सकता है तथा प्राण बचाने के लिये न खाने योग्‍य अन्‍न को भी खा सकता है, उसी प्रकार यह (पूर्व श्‍लोक में) क्षत्रिय के लिये भी कर्तव्‍य का निर्देश किया गया है। इसमें संशय नहीं है। आपद् ग्रस्‍त मनुष्‍य के लिये कौन-सा द्वार नहीं है? (वह जिस ओर से निकल भागे, वही उसके लिये द्वार है)। कैदी के लिये कौन-सा बुरा मार्ग है (वह बिना मार्ग के भी भागकर आत्‍मरक्षा कर सके तो ऐसा प्रयत्‍न कर सकता है)।

मनुष्‍य जब आपत्ति में घिरा होता है तब वह बिना दरवाजे के भी भाग निकलता है। खजाना और सेना न रहने से जिस क्षत्रिय को सब लोगों की ओर से पराभव प्राप्‍त होने की सम्‍भावना हो, उसी के लिये उपर्युक्‍त बातें बतायी गयी हैं। भीख माँगने और वैश्‍य या शुद्र की जीविका अपनाने का क्षत्रिय के लिये विधान है। परंतु जब अपनी जाति के लिये प्रतिपादित धर्म का अवलम्‍बन करके जीवन-निर्वाह न कर सके तब उसके लिये स्‍वधर्म से विपरीत वृत्ति भी बतायी गयी है। क्‍योंकि आपत्ति काल में प्रथम कल्‍प अर्थात स्‍वधर्मानुकूल वृत्ति का त्‍याग करने वाले पुरुष के लिये अपने से नीचे वर्ण की वृत्ति से जीविका चलाने का विधान है। जो आपत्ति में पड़ा ही वह धर्म के विपरीत आचरण द्वारा जीवन-निर्वाह कर सकता है। जीविका क्षीण होने पर ब्राह्मणों ऐसा व्‍यवहार देखा गया है। फिर क्षत्रिय के लिये कैसे संदेह किया जा सकता है? उसके लिये भी सदा यही निश्चित है कि वह आपत्ति काल में विशिष्ट अर्थात धनवान पुरुषों से बलपूर्वक धन ग्रहण करे। धन के अभाव में वह किसी तरह कष्ट न भोगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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