महाभारत विराट पर्व अध्याय 67 श्लोक 10-17

सप्तषष्टितम (67) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय: श्लोक 10-17 का हिन्दी अनुवाद


‘राजधानी में प्रवेश करके पिता के समीप जाने पर तुम यही कहना कि मैंने कौरवों की उस विशाल सेना पर विजय पायी है और मैंने ही शत्रुओं से अपनी गौओं को जीता है। सारांश यह कि युद्ध में जो कुछ हुआ है, वह सब तुम अपना ही किया हुआ पराक्रम बताना’।

उत्तर ने कहा- सव्यसाचिन! आपने जो पराक्रम किया है, वह देसरे के लिये असम्भव है। वैसा अदभुत कर्म करने की मुझ में शक्ति नहीं है; तथापि जब तक आप मुझे आज्ञा न देंगे, तब तक पिता जी के निकट आपके विषय में मैं कुछ नहीं कहूँगा।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! विजयशील अर्जुन पूर्वोक्त रूप से शत्रु सेना को परास्त करके कौरवों के हाथ से सारा गोधन छीन लेने के बाद पुनः श्मशान भूमि में उसी शमी वृक्ष के समीप आकर खड़े हुए। उस समय उनके सभी अंग बाणों के आघात से क्षत विक्षत हो रहे थे। तदन्नतर वह अग्नि के समान तेजस्वी महावानर ध्वज निवासी भूतगणों के साथ आकाश में उड़ गया। उसी प्रकार ध्वज सहित वह दैवी माया भी विलीन हो गयी और अर्जुन के रथ में फिर वही सिंह ध्वज लगा दिया गया। कुरुकुल शिरोमणि पाण्डवों के युद्ध क्षमता वर्धक आयुधों, तरकसों और बाणों को फिर पूर्वत शमी वृक्ष पर रखकर मत्स्य कुमार उत्तर महात्मा अर्जुन को सारथि बना उनके साथ प्रसन्नतापूर्वक नगर को चला। शत्रुहनता कुन्ती पुत्र ने शत्रुओं को मारकर महान वीरोचित पराक्रम करके पुनः पूर्ववत सिर पर वेणी धारण कर ली और उत्तर के घोड़ों की रास सँभाली। इस प्रकार बृहन्नला का रूप धारण कर महामना अर्जुन ने सारथि के रूप में प्रसन्नतापूर्वक राजधानी में प्रवेश किया।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! तदनन्तर कौरव युद्ध से भागकर विवशता पूर्वक लौट गये। उन सबने दीन भाव से उस समय हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान किश। इधर अर्जुन ने नगर में रास्ते में आकर उत्तर से कहा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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