महाभारत वन पर्व अध्याय 52 श्लोक 39-54

द्विपंचाशत्तम (52) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्विपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 39-54 का हिन्दी अनुवाद


‘कुन्तीनन्दन! तुम दुर्धर्ष, वीर हो, छल-कपट का आश्रय लिये बिना ही पापपूर्ण विचार रखने वाले दुर्योधन को सगे-सम्बन्धियों सहित नष्ट कर सकते हो’।

धर्मराज युधिष्ठिर जब भीमसेन से ऐसी बातें कह रहे थे, उसी समय महाभाग महर्षि बृहदश्व वहाँ आ पहुँचे। धर्मात्मा धर्मराज युधिष्ठिर ने धर्मानुष्ठान करने वाले उन महात्मा को आया देख शास्त्रीय विधि के अनुसार मधुपर्क द्वारा उनका पूजन किया। जब वे आसन पर बैठकर थकावट से निवृत्त हो चुके अर्थात् विश्राम कर चुके, तब महाबाहु युधिष्ठिर उनके पास ही बैठकर उन्हीं की ओर देखते हुए अत्यन्त दीनतापूर्ण वचन बोले- ‘भगवन्! पासे फेंककर खेले जाने वाले जूए के लिये मूझे बुलाकर छल-कपट में कुशल तथा पासा डालने की कला में निपुण धूर्त जुआरियों ने मेरे सारे धन तथा राज्य का अपहरण कर लिया है। मैं जूए का मर्मज्ञ नहीं हूँ। फिर भी पापपूर्ण विचार रखने वाले उन दुष्टों के द्वारा मेरी प्राणों से भी अधिक गौरवशालिनी पत्नी द्रौपदी केश पकड़कर भरी सभा में लायी गयी। एक बार जूए के संकट से बच जाने पर पुनः द्यूत का आयोजन करके उन्होंने मुझे जीत लिया और मृगचर्म पहिनाकर वनवास का अत्यन्त दारुण कष्ट भोगने के लिये इस महान् वन में निवार्सित कर दिया। मैं अत्यन्त दु:खी हो बड़ी कठिनाई से वन में निवास करता हूँ। जिस सभा में जूआ खेलने का आयोजन किया गया था, वहाँ प्रतिपक्षी पुरुषों के मुख से मुझे अत्यन्त कठोर बातें सुननी पड़ी हैं। इसके सिवा द्यूत आदि कार्यों का उल्लेख करते हुए मेरे दुःखातुर सुहृदों ने जो संतापसूचक बातें कही हैं, वे सब मेरे हृदय में स्थित हैं। मैं उन सब बातों को याद करके सारी रात चिन्ता में निमग्न रहता हूँ। इधर जिस गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन में हम सबके प्राण बसते हैं, वह भी हमसे अलग है। महात्मा अर्जुन के बिना मैं निष्प्राण-सा हो गया हूँ। मैं सदा निरालस्य भाव से यही सोचा करता हूँ कि श्रेष्ठ, दयालु और प्रियवादी अर्जुन कब अस्त्र विद्या सीखकर फिर यहाँ आयेगा और मैं उसे भर आंख देखूंगा। क्या मेरे जैसा अत्यन्त भाग्यहीन राजा इस पृथ्वी पर कोई दूसरा भी है? अथवा आपने कहीं मेरे-जैसे किसी राजा को पहले कभी देखा या सुना है। मेरा तो यह विश्वास है कि मुझसे बढ़कर अत्यन्त दु:खी मनुष्य दूसरा कोई नहीं है’।

बृहदश्व बोले- महाराज पाण्डुनन्दन! तुम जो यह कह रहे हो कि मुझसे बढ़कर अत्यन्त भाग्यहीन कोई पुरुष कहीं भी नहीं है, उसके विषय में मैं तुम्हें एक प्राचीन इतिहास सुनाऊंगा। अनघ! पृथ्वीपते! यदि तुम सुनना चाहो तो मैं उस व्यक्ति का परिचय दूंगा, जो इस पृथ्वी पर तुमसे भी अधिक दु:खी राजा था।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तब राजा युधिष्ठिर ने मुनि से कहा- ‘भगवन्! अवश्य कहिये। जो मेरे जैसी संकटपूर्ण स्थिति में पहुँचा हुआ हो, उस राजा का चरित्र मैं सुनना चाहता हूँ।

बृहदश्व ने कहा- राजन्! अपने धर्म से कभी च्युत न होने वाले भूपाल! तुम भाइयों सहित सावधान होकर सुनो। इस पृथ्वी पर जो तुमसे भी अधिक दु:खी राजा था, उसका परिचय देता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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