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महाभारत: वन पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 29-48 का हिन्दी अनुवाद
- समस्त देवता[1], पितर और यक्ष जिनकी सेवा करते हैं, असुर, राक्षस तथा सिद्ध जिनकी वन्दना करते हैं तथा जो उत्तम सुवर्ण और अग्नि के समान कान्तिमान हैं उन भगवान भास्कर को मैं हित के लिए प्रणाम करता हूँ। (29)
- जो मनुष्य सूर्योदय के समय भली-भाँति एकाग्रचित्त हो इन नामों का पाठ करता है, वह स्त्री, पुरुष, रत्नराशि, पूर्वजन्म की स्मृति, धैर्य तथा उत्तम बुद्धि प्राप्त कर लेता है। (30)
- जो मानव स्नान आदि करके पवित्र, शुद्धचित्त एवं एकाग्र हो देवेश्वर भगवान सूर्य के इस नामात्मक स्त्रोत का कीर्तन करता है, वह शोकरूपी दानव से युक्त दुष्कर संसार सागर से मुक्त हो मनचाही वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है। (31)
- वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! पुरोहित धौम्य के इस प्रकार समयोचित बात कहने पर ब्राह्मणों को देने के लिये अन्न की प्राप्ति के उद्देश्य से नियम में स्थित हो मन को वश में रखकर दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करते हुए शुद्ध चेता धर्मराज युधिष्ठिर ने उत्तम तपस्या का अनुष्ठान आरम्भ किया। राजा युधिष्ठिर ने गंगा जी के जल से पुष्प और नैवेद्य आदि उपहारों द्वारा भगवान दिवाकर की पूजा की और उनके सम्मुख मुँह करके खड़े हो गये। धर्मात्मा पाण्डु कुमार चित्त को एकाग्र करके इंद्रियों को संयम में रखते हुए केवल वायु पीकर रहने लगे। (32-34)
- गंगा जल का आचमन करके पवित्र हो वाणी को वश में रखकर तथा प्राणायामपूर्वक स्थित रहकर पूर्वोत्तर अष्टोत्तरशतनामात्मक स्तोत्र का जप किया। (35)
- युधिष्ठिर बोले- सूर्य देव आप सम्पूर्ण जगत के नेत्र तथा समस्त प्राणियों के आत्मा हैं। आप ही सब जीवों के उत्पत्ति-स्थान और कर्मानुष्ठान में लगे हुए पुरुषों के सदाचार हैं। (36)
- सम्पूर्ण सांख्ययोगियों के प्राप्तव्य स्थान पर ही हैं। आप ही सब कर्म योगियों के आश्रय हैं। आप ही मोक्ष के उन्मुक्त द्वार हैं और आप ही मुमुक्षुओं की गति हैं। (37)
- आप ही सम्पूर्ण जगत को धारण करते हैं। आपसे ही यह प्रकाशित होता है। आप ही इसे पवित्र करते हैं और आपके ही द्वारा निःस्वार्थ भाव से उसका पालन किया जाता है। (38)
- सूर्यदेव! आप सभी ऋषिगणों द्वारा पूजित हैं। वेद के तत्त्वश ब्राह्मण लोग अपनी-अपनी वेद शाखओं में वर्णित मंत्रों द्वारा उचित समय पर उपस्थान करके आपका पूजन किया करते हैं। (39)
- सिद्ध, चारण, गन्धर्व, यक्ष, गुह्यक और नाग आपसे वर पाने की अभिलाषा से आपके गतिशील दिव्य रथ के पीछे-पीछे चलते हैं। (40)
- तैंतीस[2] देवता एवं विमानचारी सिद्ध गण भी उपेन्द्र तथा महेन्द्र सहित आपकी अराधना करके सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। (41)
- श्रेष्ठ विद्याधरगण दिव्य मन्दार-कुसुमों की मालाओं से आपकी पूजा करके सफल मनोरथ हो तुरंत आपके समीप पहुँच जाते हैं। गुह्यक, सात[3] प्रकार के पितृगण तथा दिव्य मानव[4] आपकी ही पूजा करके श्रेष्ठ पद को प्राप्त करते हैं। वसुगण, मरुद्रगण, रुद्र, साध्य तथा आपकी किरणों का पान करने वाले वालखिल्य आदि सिद्ध महर्षि आपकी ही आराधना से सब प्राणियों में श्रेष्ठ हुए हैं। (42-44)
- ब्रह्मलोक सहित ऊपर के सातों लोकों में तथा अन्य सब लोकों में भी ऐसा कोई प्राणी नही, दिखता जो आप भगवान सूर्य से बढ़कर हो। भगवन! जगत में और बहुत से प्राणी हैं परंतु उनकी कांति और प्रभाव आपके समान नहीं हैं। सम्पूर्ण ज्योर्तिमय पदार्थ आपके ही अंर्तगत हैं। आप ही समस्त ज्योंतियों के स्वामी हैं। सत्य, सत्त्व तथा समस्त सात्तिक भाव आप में ही प्रतिष्ठित हैं। शांर्ग नामक धनुष धारण करने वाले भगवान विष्णु ने जिसके द्वारा घमंड चूर्ण किया है, उस सुदर्शन चक्र को विश्वकर्मा ने आपके ही तेज से बनाया है। (43-48)
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