पन्चदशाधिकत्रिशततम (315) अध्याय: वन पर्व (आरणेयपर्व)
महाभारत: वन पर्व: पन्चदशाधिकत्रिशततम अध्यायः श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद
महर्षि धौम्य ने जब इस प्रकार युक्तियुक्त वचनों द्वारा धर्मज्ञ युधिष्ठिर को संतोष प्रदान किया, तब वे शास्त्रज्ञान और अपने बुद्धिबल के कारण (धर्म से) विचलित नहीं हुए। तदनन्तर बलवानों में श्रेष्ठ महाबली महाबाहु भीमसेन ने अपनी वाणी से राजा युधिष्ठिर का हर्ष और उत्साह बढ़ाते हुए कहा- ‘महाराज! गाण्डीव धनुष धारण करने वाले अर्जुन ने आपके आदेश की प्रतीक्षा तथा अपनी धर्मानुगामिनी बुद्धि के कारण ही अब तक कोई साहस का कार्य नहीं किया है। भयंकर पराक्रमी नकुल और सहदेव उन सब शत्रुओं का विध्वंस करने में समर्थ हैं। इन दोनों को मैं ही सदा रोकता आया हूँ। आप हमें जिस कार्य में लगा देंगे, उसे हम लोग किये बिना नहीं छोड़ेंगे। अतः आप युद्ध की सारी व्यवस्था कीजिये। हम शत्रुओं पर शीघ्र ही विजय पायेंगे’। भीमसेन के ऐसा कहने पर सब ब्राह्मण पाण्डवों को उत्तम आशीर्वाद देकर और उन भरतवंशियों से अनुमति लेकर अपने-अपने घरों को चले गये। वेदों के ज्ञाता समस्त प्रधान-प्रधान संन्यासी तथा मुनि लोग पाण्डवों से फिर मिलने की इच्छा रचाकर न्यायानुसार अपने योग्य स्थानों में रहने लगे। धौम्य सहित विद्वान् एवं वीर पाँचों पाण्डव द्रौपदी को साथ लिये धनुष धारण किये वहाँ से उठकर चल दिये। किसी कारणवश उस स्थान से एक कोस दूर जाकर वे नरश्रेष्ठ ठहर गये और आगामी दूसरे दिन से अज्ञातवास आरम्भ करने के लिये उद्यत हो परस्पर सलाह करने के निमित्त आस-पास बैठ गये। वे सभी पृथक्-पृथक् शास्त्रों के ज्ञाता, मन्त्रणा करने में कुशल तथा संधि-विग्रह आदि के अवसर को जानने वाले थे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत-व्यासनिर्मित शतसहस्री संहिता के वनपर्व के अन्तर्गत आरणेयपर्व में अज्ञातवास के लिये मन्त्रणा विषयक तीन सौ पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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