महाभारत वन पर्व अध्याय 255 श्लोक 1-20

पच्‍चपच्‍चाशदधिकद्विशततम (255) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: पच्‍चपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


कर्ण और पुरोहित की सलाह से दुर्योधन की वैष्‍णव यज्ञ के लिये तैयारी

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- महाराज जनमेजय! शत्रुवीरों का संहार करने वाले सूतपुत्र कर्ण ने सारी पृथ्‍वी को जीतकर दुर्योधन से इस प्रकार कहा। कर्ण बोला- 'कुरुनन्‍दन दुर्योधन! मैं जो कहता हूँ, उसे सुनो। शत्रुदमन! मेरी बात सुनकर उसके अनुसार सब कुछ करो। वीर! नृपश्रेष्‍ठ! आज सारी पृथ्‍वी तुम्‍हारे लिये निष्‍कण्‍टक हो गयी है। जैसे महामना इन्द्र अपने शत्रुओं का संहार करके त्रिलोकी का पालन करते हैं, उसी प्रकार तुम भी इस पृथ्‍वी का पालन करो।'

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कर्ण के ऐसा कहने पर राजा दुर्योधन ने पुन: उससे कहा- ‘पुरुषश्रेष्‍ठ! जिसके सहायक तुम हो एवं जिस पर तुम्‍हारा अनुराग है, उसके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। तुम सदा मेरे हित के लिये उद्यत रहते हो। मेरा एक मनोरथ है, जिसे यथार्थरूप से बतलाता हूँ, सुनो। सूतनन्‍दन! पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर के उस क्रतुश्रेष्‍ठ महान् राजसूय यज्ञ को देखकर मेरे मन में भी उसे करने की इच्‍छा जाग उठी है। तुम इस इच्‍छा को पूर्ण करो’। दुर्योधन की यह बात सुनकर कर्ण ने उससे यह कहा- ‘नृपश्रेष्‍ठ! इस समय भूपाल तुम्‍हारे वश में हैं। कुरुकुलश्रेष्‍ठ! उत्‍तम ब्राह्मणों को बुलाओ और विधिपूर्वक यज्ञ की सामग्रियों तथा उपकरणों को जुटाओ। शत्रुदमन नरेश! तुम्‍हारे द्वारा आमन्त्रित शास्‍त्रोक्‍त योग्‍यता से सम्‍पन्न वेदज्ञ ऋत्विक् विधि‍ के अनुसार सब कार्य करें। भरतश्रेष्‍ठ! तुम्‍हारा महायज्ञ भी प्रचुर अन्‍नपान की सामग्री से युक्‍त और अत्‍यन्‍त समृद्धिशाली गुणों से सम्‍पन्‍न हो’।

राजन्! कर्ण के इस प्रकार अनुमोदन करने पर दुर्योधन ने अपने पुरोहित को बुलाकर यह बात कही- ‘ब्रह्मन्! आप मेरे लिये उत्‍तम दक्षिणा ओं से युक्‍त क्रतुश्रेष्‍ठ राजसूय का यथोचित रीति से विधिपूर्वक अनुष्‍ठान करवाइये’। नरेश्‍वर! राजा के इस प्रकार आदेश देने पर विप्रवर पुरोहित ने वहाँ आये हुए अन्‍य ब्राह्मणों के साथ इस प्रकार उत्‍तर दिया- ‘कौरवश्रेष्‍ठ! नृपशिरोमणे! राजा युधिष्ठिर के जीते आपके कुल में इस उत्‍तम क्रतु राजसूय का अनुष्‍ठान नहीं किया जा सकता। महाराज! अभी आपके दीर्घायु पिता धृतराष्ट्र भी जीवित हैं, इसलिये भी यह यज्ञ आपके लिये अनुकूल नहीं पड़ता। प्रभो! एक दूसरा महान् यज्ञ है, जो राजसूय की समानता रखता है। राजेन्‍द्र! आप उसी के द्वारा भगवान का यजन कीजिये और इसके सम्‍बनध में मेरी यह बात सुनिये।

पृथ्‍वीनाथ! ये जो सब भूपाल आपको कर देते हैं, इन्‍हें आज्ञा दीजिये-ये लोग आपको सुवर्ण के बने हुए आभूषण तथा सुवर्ण ‘कर’ के रूप में अर्पण करें। नृपश्रेष्‍ठ! उसी सुवर्ण से आप एक हल तैयार करवाइये। भारत! उसी हल से आपके यज्ञमण्‍डप की भूमि जोती जाये। नृपश्रेष्‍ठ! उस जोती हुई भूमि में ही उत्‍तम संस्‍कार से सम्‍पन्न प्रचुर अन्‍नपान से युक्‍त और सबके लिये खुला हुआ यज्ञ यथोचित रूप से प्रारम्‍भ किया जाय। यह मैंने आपको वैष्‍णव नामक यज्ञ बताया है, जिसका अनुष्‍ठान सत्‍पुरुषों के लिये सर्वथा उचित है। पुरातनपुरुष भगवान् विष्णु के सिवा और किसी ने अब तक इस यज्ञ का अनुष्‍ठान नहीं किया है। यह महायज्ञ क्रतुश्रेष्‍ठ राजसूय से टक्‍कर लेने वाला है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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