महाभारत वन पर्व अध्याय 233 श्लोक 18-31

त्रयस्त्रिशदधिकद्विशततम (233) अध्‍याय: वन पर्व (द्रौपदीसत्‍यभामा संवाद पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रयस्त्रिशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद


‘यशस्विनी सत्‍यभामे! मैं स्‍वयं महात्‍मा पाण्‍डवों के साथ जैसा बर्ताव करती हूँ, वह सब सच-सच सुनाती हूँ; सुनो। मैं अहंकार और काम-क्रोध को छोड़कर सदा पूरी सावधानी के साथ सब पाण्‍डवों की और उनकी अन्‍यान्‍य स्त्रियों की भी सेवा करती हूँ। अपनी इच्‍छाओं का दमन करके मन को अपने आप में ही समेटे हुए केवल सेवा की इच्‍छा से ही अपने पतियों का मन रखती हूँ। अहंकार और अभिमान को अपने पास नहीं फटकने देती। कभी मेरे मुख से कोई बुरी बात न निकल जाये, इसकी आशंका से सदा सावधान रहती हूँ। असभ्य की भॉंति कहीं खड़ी नहीं होती। निर्लज्‍ज की तरह सब ओर दृष्टि नहीं डालती। बुरी जगह पर नहीं बैठती।

दुराचार से बचती तथा चलने-फिरने में भी असभ्‍यता न हो जाये, इसके लिये सतत सावधान रहती हूँ। पतियों के अभिप्रायपूर्ण संकेत का सदैव अनुसरण करती हूँ। कुन्ती देवी के पांचों पुत्र ही मेरे पति हैं। वे सूर्य और अग्नि के समान तेजस्‍वी, चन्‍द्रमा के समान आह्लाद प्रदान करने वाले महारथी दृष्टिमात्र से ही शत्रुओं को मारने की शक्ति रखने वाले तथा भंयकर बल-पराक्रम एवं प्रताप से युक्‍त हैं। मैं सदा उन्‍हीं की सेवा में लगी रहती हूँ। देवता मनुष्‍य, गन्‍धर्व, युवक बड़ी सजधज वाला धनवान् अथवा परम सुन्‍दर कैसा ही पुरुष क्‍यों न हो, मेरा मन पाण्‍डवों के सिवा और कहीं नहीं जाता। पतियों और उनके सेवकों को भोजन कराये बिना मैं कभी भोजन नहीं करती, उन्‍हें नहलाये बिना कभी नहाती नहीं हूँ तथा पतिदेव जब तक शयन न करें, तब तक मैं सोती भी नहीं हूँ।

खेत से, वन से अथवा गांव से जब कभी मेरे पति घर पधारते हैं, उस समय मैं खड़ी होकर उनका अभिनन्‍दन करती हूँ तथा आसन और जल अर्पण करके उनके स्‍वागत-सत्‍कार में लग जाती हूँ। मैं घर के बर्तनों को मांज, धोकर साफ रखती हूँ। शुद्ध एवं स्‍वादिष्‍ट रसोई तैयार करके सब को ठीक समय पर भोजन कराती हूँ। मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर घर में गुप्‍त रूप से अनाज का संचय रखती हूँ और घर को झाड़-बुहार और लीप-पोतकर सदा स्‍वच्‍छ एवं पवित्र बनाये रखती हूँ। मैं कोई ऐसी बात मुहं से नहीं निकालती, जिससे किसी का तिरस्‍कार होता हो। दुष्‍ट स्त्रियों के सम्‍पर्क से सदा दूर रहती हूँ। आलस्‍य को कभी पास नहीं आने देती और सदा पतियों के अनुकूल बर्ताव करती हूँ। पति के किये हुए परिहास के सिवा अन्‍य समय में मैं नहीं हंसा करती, दरवाजे पर बार-बार नहीं खड़ी होती, जहाँ कूड़े-करकट फेंके जाते हों, ऐसे गंदे स्‍थानों में देर तक नहीं ठहरती और बगीचों में भी बहुत देर तक अकेली नहीं घूमती हूँ।

नीच पुरुषों से बात नहीं करती, मन में असंतोष को स्‍थान नहीं देती और परायी चर्चा से दूर रहती हूँ। न अधिक हंसती हूँ और न अधिक क्रोध करती हूँ। क्रोध का अवसर ही नहीं आने देती। सदा सत्‍य बोलती और पतियों की सेवा में लगी रहती हूँ। पतिदेव के बिना किसी भी स्‍थान में अकेली रहना मुझे बिल्‍कुल पसन्‍द नहीं है। मेरे स्‍वामी जब कभी कुटुम्‍ब के कार्य से कभी परदेश चले जाते हैं, उन दिनों मैं फूलों का श्रृंगार नहीं धारण करती, अंगराग नहीं लगाती और निरन्‍तर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती हूँ। मेरे पतिदेव जिस चीज को नहीं खाते, नहीं पीते अथवा नहीं सेवन करते, वह सब मैं भी त्‍याग देती हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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