चतुर्विशत्यधिकद्विशततम (224) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: चतुर्विशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद
ब्रह्माजी ने कहा- दानवसूदन! इस विषय में तुमने जो विचार किया है, वही मैंने भी सोचा है। वैसा होने पर ही एक महान् पराक्रमी बलवान् वीर का प्रादुर्भाव होगा। शतक्रतो! वही तुम्हारे साथ रहकर देवसेना का पराक्रमी सेनापति होगा और वही इस देवी का भी पति होगा। यह सुनकर देवराज इन्द्र ब्रह्माजी को नमस्कार करके उस कन्या को साथ ले जहाँ महान् शक्तिशाली वसिष्ठ आदि श्रेष्ठ ब्राह्मण एवं देवर्षि थे, वहाँ उनके आश्रम पर आये। उन दिनों वे महर्षिगण जो यज्ञ कर रहे थे, उसमें भाग लेने के लिये तथा सोमपान करने के लिये इन्द्र आदि सभी देवता वहाँ पधारे थे। उन सबके मन में सोमपान की इच्छा थी। उन महात्मा ऋषियों ने प्रज्वलित अग्नि में शास्त्रीय विधि से इष्टि का सम्पादन करके सम्पूर्ण देवताओं के लिये हविष्य आहुति दी। भरतश्रेष्ठ! मन्त्रों द्वारा आवाहन होने पर वे अद्भुत नामक अग्नि सूर्यमण्डल से निकलकर मौनभाव से वहाँ आये और ब्रह्मर्षियों द्वारा मन्त्रोच्चरणपूर्वक विधिवत् हवन किये हुए भाँति-भाँति के हवनीय पदार्थों को उन महर्षियों से प्राप्त करके उन्होंने सम्पूर्ण देवताओं की सेवा में अर्पित किया। देवताओं को हविष्य पहुँचाकर जब अग्नि देव वहाँ से जाने लगे, तब उनकी दृष्टि उन महात्मा सप्तर्षियों की पत्नियों पर पड़ी। उनमें से कुछ तो अपने आसनों पर बैठी थीं और कुछ सुखपूर्वक सो रही थीं। उनकी अंगकान्ति सुवर्णमयी वेदी के समान गौर थी, वे चन्द्रमा की कला के समान निर्मल थीं, अग्नि की लपटों के समान प्रभा बिखेर रही थीं और तारिकाओं के समान अद्भुत सौन्दर्य प्रकाशित हो रही थीं। इस प्रकार वहाँ (आसक्तियुक्त) मन से उन ब्रह्मर्षियों की पत्नियों को देखकर अग्नि देव की सारी इन्द्रियाँ क्षोभ से चंचल हो उठीं। वे सर्वथा काम के अधीन हो गये। फिर उन्होंने मन-ही मन विचार किया कि ‘मेरा यह कार्य कदापि उचित नहीं है। मेरे मन में विकार आ गया है। इन ब्रह्मर्षियों की पत्नियां पतिव्रता हैं। ये मुझे बिल्कुल नहीं चाहतीं, तो भी मैं इनकी कामना करता हूँ। मैं अकारण न तो इन्हें देख सकता हूँ और न इनका स्पर्श ही कर सकता हूँ। ऐसी दशा मैं यदि मैं गार्हपत्य अग्नि में प्रविष्ट हो जाऊं, तो बार-बार इनके दर्शन का अवसर पा सकता हूँ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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