महाभारत वन पर्व अध्याय 224 श्लोक 18-35

चतुर्विशत्‍यधिकद्विशततम (224) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व)

Prev.png

महाभारत: वन पर्व: चतुर्विशत्‍यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद


‘यह सिन्‍धु नदी भी उल्‍टी धारा में बहकर रक्त के स्रोत बहा रही है। सियारिन मुंह से आग उगलती हुई सी सूर्य की ओर देखती रोती है। अनेक योगों का यह भयंकर तथा महान् संघात (सम्‍मेलन) तेज से आलोकित हो रहा है। अग्नि और सूर्य के साथ चन्‍द्रमा का यह अद्भुत समागम दृष्टिगोचर होता है। जान पड़ता है, इस समय चन्‍द्रमा जिस पुत्र को जन्‍म देंगे, वही इस देवी का पति होगा अथवा अग्नि भी इन सभी अभीष्‍ट गुणों से युक्‍त हैं। वे भी देवकोटि में ही हैं। अत: ये यदि किसी बालक को उत्‍पन्न करें, तो वही इस देवी का पति होगा।' ऐसा सोच विचार कर ऐश्वर्यशाली इन्द्र उस समय उस देवसेना को साथ ले ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले- ‘भगवन्! आप इस देवी के लिये कोई अच्‍छे स्‍वभाव का शूरवीर पति प्रदान कीजिये।'

ब्रह्माजी ने कहा- दानवसूदन! इस विषय में तुमने जो विचार किया है, वही मैंने भी सोचा है। वैसा होने पर ही एक महान् पराक्रमी बलवान् वीर का प्रादुर्भाव होगा। शतक्रतो! वही तुम्‍हारे साथ रहकर देवसेना का पराक्रमी सेनापति होगा और वही इस देवी का भी पति होगा। यह सुनकर देवराज इन्‍द्र ब्रह्माजी को नमस्‍कार करके उस कन्‍या को साथ ले जहाँ महान् शक्तिशाली वसिष्ठ आदि श्रेष्‍ठ ब्राह्मण एवं देवर्षि थे, वहाँ उनके आश्रम पर आये। उन दिनों वे महर्षिगण जो यज्ञ कर रहे थे, उसमें भाग लेने के लिये तथा सोमपान करने के लिये इन्‍द्र आदि सभी देवता वहाँ पधारे थे। उन सबके मन में सोमपान की इच्‍छा थी। उन महात्‍मा ऋषियों ने प्रज्‍वलित अग्नि में शास्‍त्रीय विधि से इष्टि का सम्‍पादन करके सम्‍पूर्ण देवताओं के लिये हविष्‍य आहुति दी।

भरतश्रेष्‍ठ! मन्‍त्रों द्वारा आवाहन होने पर वे अद्भुत नामक अग्नि सूर्यमण्‍डल से निकलकर मौनभाव से वहाँ आये और ब्रह्मर्षियों द्वारा मन्‍त्रोच्चरणपूर्वक विधिवत् हवन किये हुए भाँति-भाँति के हवनीय पदार्थों को उन महर्षियों से प्राप्‍त करके उन्‍होंने सम्‍पूर्ण देवताओं की सेवा में अर्पित किया। देवताओं को हविष्‍य पहुँचाकर जब अग्नि देव वहाँ से जाने लगे, तब उनकी दृष्टि उन महात्‍मा सप्‍तर्षियों की पत्नियों पर पड़ी। उनमें से कुछ तो अपने आसनों पर बैठी थीं और कुछ सुखपूर्वक सो रही थीं। उनकी अंगकान्ति सुवर्णमयी वेदी के समान गौर थी, वे चन्‍द्रमा की कला के समान निर्मल थीं, अग्नि की लपटों के समान प्रभा बिखेर रही थीं और तारिकाओं के समान अद्भुत सौन्‍दर्य प्रकाशित हो रही थीं।

इस प्रकार वहाँ (आसक्तियुक्‍त) मन से उन ब्रह्मर्षियों की पत्नियों को देखकर अग्नि देव की सारी इन्द्रियाँ क्षोभ से चंचल हो उठीं। वे सर्वथा काम के अधीन हो गये। फिर उन्‍होंने मन-ही मन विचार किया कि ‘मेरा यह कार्य कदापि उचित नहीं है। मेरे मन में विकार आ गया है। इन ब्रह्मर्षियों की पत्नियां पतिव्रता हैं। ये मुझे बिल्‍कुल नहीं चाहतीं, तो भी मैं इनकी कामना करता हूँ। मैं अकारण न तो इन्‍हें देख सकता हूँ और न इनका स्‍पर्श ही कर सकता हूँ। ऐसी दशा मैं यदि मैं गार्हपत्‍य अग्नि में प्रविष्‍ट हो जाऊं, तो बार-बार इनके दर्शन का अवसर पा सकता हूँ।'

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः