नवाधिकद्विशततक (209) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: नवाधिकद्विशततक अध्याय: श्लोक 29-42 का हिन्दी अनुवाद
व्याध ने कहा- विप्रवर! गर्भाधान आदि संस्कारसम्बन्धी ग्रन्थों द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है 'कि यह जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है, सब कर्मों का ही परिणाम है। अत: किस कर्म से कहाँ जन्म होता है? इस विषय में तुमसे संक्षिप्त वर्णन करता हूँ, सुनो। जीव कर्मबीजों का संग्रह करके जिस प्रकार पुन: जन्म ग्रहण करता है, वह बताया जा रहा है। शुभ कर्म करने वाला मनुष्य शुभ योनियों में और पाप कर्म करने वाला पाप योनियों में जन्म लेता है। शुभकर्मों के संयोग से जीव को देवत्व की प्राप्ति होती है। शुभ और अशुभ दोनों के सम्मिश्रण से उसका मनुष्य योनि में जन्म होता है। मोह में डालने वाले तामस कर्मों के आचरण से जीव पशु, पक्षी आदि की योनि में जन्म ग्रहण करता है और जिसने केवल पाप का ही संचय किया है, वह नरकगामी होता है। मनुष्य अपने ही किये हुए अपराधों के कारण जन्म-मृत्यु और जरा सम्बन्धी दु:खों से सदा पीड़ित हो बारंबार संसार में पचता रहता है। कर्मबन्धन में बंधे हुए (पापी) जीव सहस्रों प्रकार की तिर्यक् योनियों तथा नरकों में चक्कर लगाया करते हैं। प्रत्येक जीव अपने किये हुए कर्मों से ही मृत्यु के पश्चात् दु:ख भोगता है और उस दु:ख का भोग करने के लिये ही वह (चाण्डालादि) पापयोनि में जन्म लेता है। वहाँ फिर नये-नये बहुत-से पापकर्म कर डालता है, जिसके कारण कुपथ्य खा लेने वाले रोगी की भाँति उसे नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। इस प्रकार वह यद्यपि निरन्तर दु:ख ही भोगता रहता है, तथापि अपने को दु:खी नहीं मानता। इस दु:ख को ही वह सुख की संज्ञा दे देता है। जब तक बन्धन में डालने वाले कर्मों का भोग पूरा नहीं होता और नये-नये कर्म बनते रहते हैं, तब तक अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करता हुआ वह चक्र की तरह इस संसार में चक्कर लगाता रहता है। द्विजश्रेष्ठ! जब बन्धनकारक कर्मों का भोग पूरा हो जाता है और सत्कर्मों के द्वारा मनुष्य में शुद्धि आ जाती है, तब वह तप और योग का आरम्भ करता है। अत: बहुत-से शुभकर्मों के फलस्वरूप उसे उत्तम लोकों का भोग प्राप्त होता है। इस प्रकार बन्धनरहित तथा शुद्ध हुआ मनुष्य अपने पुण्य कर्मों के प्रभाव से पुण्यलोक प्राप्त करता है, जहाँ जाकर कोई भी शोक नहीं करता है। पाप करने वाले मनुष्यों को पाप की आदत हो जाती है, फिर उसके पाप का अन्त नहीं होता; अत: मनुष्यों को चाहिये कि वह पुण्य कर्म करने का प्रयत्न करें और पाप को सर्वथा त्याग दें। पुण्यात्मा मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और कृतज्ञ होकर कल्याणकारी कर्मों का सेवन करता है तथा उसे सुख, धर्म, अर्थ एवं स्वर्ग की प्राप्ति होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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