महाभारत वन पर्व अध्याय 209 श्लोक 14-28

नवाधिकद्विशततक (209) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: नवाधिकद्विशततक अध्‍याय: श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद


इसमें संदेह नहीं कि मनुष्‍यों के जो रोग होते हैं, वे उनके कर्मों के ही फल हैं। जैसे बहेलिये छोटे मृगों को पीड़ा देते हैं, उसी प्रकार वे रोग और आधि-व्याधियाँ जीवों को पीड़ा देती रहती हैं। ब्रह्मन्! (उनका भोग पूरा होने पर) ओषधियों का संग्रह करने वाले चिकित्‍साकुशल चतुर चिकित्सक उन रोग-व्‍याधियों का उसी प्रकार निवारण कर देते हैं, जैसे व्‍याध मृगों को भगा देते हैं। धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ कौशिक! देखो, जिनके यहाँ भोजन का भण्‍डार भरा पड़ा है, उन्‍हें प्राय: संग्रहणी सता रही है, वे उसका उपभोग नहीं कर पाते है। विप्रवर! दूसरे बहुत-से ऐसे मनुष्‍य हैं, जिनकी भुजाओं में बल है-जो स्‍वस्‍थ और अन्न को पचाने में समर्थ हैं, परंतु उन्‍हें बड़ी कठिनाई से भोजन मिल पाता है-वे सदा ही अन्‍न का कष्‍ट भोगते रहते हैं। इस प्रकार यह संसार असहाय तथा मोह, शोक में डूबा हुआ है। कर्मों के अत्‍यन्‍त प्रबल प्रवाह में पड़कर बार-बार उसकी आधि-व्‍या‍धिरूपी तरंगों के थपेड़े सहता और विवश होकर इधर-से-उधर बहता रहता है।

यदि जीव अपने वश में होते तो वे न मरते और न बूढ़े ही होते। सभी सब तरह की मनचाही वस्‍तुओं को प्राप्‍त कर लेते। किसी को अप्रिय घटना नहीं देखनी पड़ती। सब लोग सारे जगत् के ऊपर-ऊपर जाने की इच्‍छा रखते हैं-सभी सबसे ऊंचा होना चाहते हैं और उसके लिये वे यथाशक्ति प्रयत्‍न भी करते हैं, पंरतु (सभी जगह) वैसा होता नहीं है। बहुत-से ऐसे मनुष्‍य देखे जाते हैं, जिनका जन्‍म एक ही नक्षत्र में हुआ है और जिनके लिए मंगल कृत्य भी समान रूप से ही किये गये हैं, परंतु विभिन्‍न प्रकार के कर्मों का संग्रह होने के कारण उन्‍हें प्राप्त होने वाले फल में महान् अन्‍तर दृष्टिगोचर होता है। ब्रह्मन्! साधुशिरोमणे! कोर्इ अपने हाथ में आयी हुई वस्‍तु का भी उपयोग करने में समर्थ नहीं है। इस जगत् में पूर्वजन्‍म में किये हुए कर्मों के ही फल की प्राप्ति देखी जाती है। विप्रवर! श्रुति के अनुसार यह जीवात्‍मा निश्‍चय ही सनातन है और संसार में समस्‍त प्राणियों का शरीर नश्‍वर है। शरीर पर आघात करने से उस शरीर का नाश तो हो जाता है; किंतु अविनाशी जीव नहीं मरता। वह कर्मों के बन्‍धन में बंधकर फिर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है।

ब्राह्मण ने पूछा- धर्मज्ञों तथा वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ व्‍याध! जीव सनातन कैसे है? मैं इस विषय को यथार्थ रूप से जानना चाहता हूँ।

धर्मव्‍याध ने कहा- ब्रह्मन्! देह का नाश होने पर जीव का नाश नहीं होता। मनुष्‍यों का यह कथन कि ‘जीव मरता है’ मिथ्‍या ही है, किंतु जीव तो इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में चला जाता है। शरीर के पांचों तत्‍वों का पृथक-पृथक पांच भूतों में मिल जाना ही उसका नाश कहलाता है। इस मानव लोक में मनुष्‍य के किये हुए कर्म को (उस कर्ता के सिवा) दूसरा कोई नहीं भोगता है। उसके द्वारा जो कुछ भी कर्म किया गया है, उसे वह स्‍वयं ही भोगेगा। किये हुए कर्मों का कभी नाश नहीं होता। पुण्‍यात्मा मनुष्‍य पुण्‍यकर्मों का अनुष्‍ठान करते हैं और नीच मनुष्‍य पाप में प्रवृत्त होते हैं। यहाँ अपने किये हुए कर्म मनुष्‍य का अनुसरण करते हैं और उनसे प्रभावित होकर वह दूसरा जन्‍म धारण करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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