नवाधिकद्विशततक (209) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: नवाधिकद्विशततक अध्याय: श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद
यदि जीव अपने वश में होते तो वे न मरते और न बूढ़े ही होते। सभी सब तरह की मनचाही वस्तुओं को प्राप्त कर लेते। किसी को अप्रिय घटना नहीं देखनी पड़ती। सब लोग सारे जगत् के ऊपर-ऊपर जाने की इच्छा रखते हैं-सभी सबसे ऊंचा होना चाहते हैं और उसके लिये वे यथाशक्ति प्रयत्न भी करते हैं, पंरतु (सभी जगह) वैसा होता नहीं है। बहुत-से ऐसे मनुष्य देखे जाते हैं, जिनका जन्म एक ही नक्षत्र में हुआ है और जिनके लिए मंगल कृत्य भी समान रूप से ही किये गये हैं, परंतु विभिन्न प्रकार के कर्मों का संग्रह होने के कारण उन्हें प्राप्त होने वाले फल में महान् अन्तर दृष्टिगोचर होता है। ब्रह्मन्! साधुशिरोमणे! कोर्इ अपने हाथ में आयी हुई वस्तु का भी उपयोग करने में समर्थ नहीं है। इस जगत् में पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों के ही फल की प्राप्ति देखी जाती है। विप्रवर! श्रुति के अनुसार यह जीवात्मा निश्चय ही सनातन है और संसार में समस्त प्राणियों का शरीर नश्वर है। शरीर पर आघात करने से उस शरीर का नाश तो हो जाता है; किंतु अविनाशी जीव नहीं मरता। वह कर्मों के बन्धन में बंधकर फिर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है। ब्राह्मण ने पूछा- धर्मज्ञों तथा वक्ताओं में श्रेष्ठ व्याध! जीव सनातन कैसे है? मैं इस विषय को यथार्थ रूप से जानना चाहता हूँ। धर्मव्याध ने कहा- ब्रह्मन्! देह का नाश होने पर जीव का नाश नहीं होता। मनुष्यों का यह कथन कि ‘जीव मरता है’ मिथ्या ही है, किंतु जीव तो इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में चला जाता है। शरीर के पांचों तत्वों का पृथक-पृथक पांच भूतों में मिल जाना ही उसका नाश कहलाता है। इस मानव लोक में मनुष्य के किये हुए कर्म को (उस कर्ता के सिवा) दूसरा कोई नहीं भोगता है। उसके द्वारा जो कुछ भी कर्म किया गया है, उसे वह स्वयं ही भोगेगा। किये हुए कर्मों का कभी नाश नहीं होता। पुण्यात्मा मनुष्य पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करते हैं और नीच मनुष्य पाप में प्रवृत्त होते हैं। यहाँ अपने किये हुए कर्म मनुष्य का अनुसरण करते हैं और उनसे प्रभावित होकर वह दूसरा जन्म धारण करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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