महाभारत वन पर्व अध्याय 200 श्लोक 46-61

द्विशततम (200) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

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महाभारत: वन पर्व: द्विशततम अध्‍याय: श्लोक 46-61 का हिन्दी अनुवाद


महाराज! मनुष्‍य लोक और यमलोक के मार्ग में छियासी हजार योजनों का अन्‍तर है। उसके मार्ग में जलरहित शून्‍य आकाशमात्र है। वह देखने में बड़ा भयानक और दुर्गम है। वहाँ न तो वृक्षों की छाया है, न पानी है और न कोई ऐसा स्‍थान ही है, जहाँ रास्‍ते का थका-मांदा जीव क्षणभर भी विश्राम कर सके। यमराज की आज्ञा का पालन करने वाले यमदूत इस पृथ्‍वी पर आकर यहाँ के पुरुषों, स्त्रियों तथा अन्‍य जीवों को बलपूर्वक पकड़ ले जाते हैं।

राजन्! जिनके द्वारा यहाँ ब्राह्मणों को नाना प्रकार के अश्व आदि वाहनों का उत्‍कृष्‍ट दान किया गया है, वे उस मार्ग पर (उन्‍हीं वाहनों द्वारा सुख से) यात्रा करते हैं। छत्र-दान करने वाले मनुष्‍य वहाँ प्राप्‍त हुए छत्र के द्वारा ही धूप का निवारण करते हुए चलते हैं। अन्‍न दान करने वाले जीव वहाँ भोजन से तृप्‍त होकर यात्रा करते हैं; किंतु जिन्‍होंने अन्‍न दान नहीं किया है, वे भूख का कष्‍ट सहते हुए चलते हैं। वस्‍त्र देने वाले लोग कपड़े पहनकर जाते हैं और जिन्‍होंने वस्‍त्र दान नहीं किया है, उन्‍हें नंगे होकर जाना पड़ता है। सुवर्ण का दान करने वाले मनुष्‍य उस मार्ग पर नाना प्रकार के आभुषणों से विभूषित हो बड़े सुख से यात्रा करते हैं। भूमि का दान करने वाले दाता सम्‍पूर्ण मनोवांच्छित भोगों से तृप्‍त हो वहाँ बड़े आनन्‍द से जाते हैं। खेत में लगी हुई खेती दान करने वाले मनुष्‍य बिना किसी कष्‍ट के जाते हैं। गृह दान करने वाले मानव विमानों पर बैठकर अत्‍यन्‍त सुख सुविधा के साथ जाते हैं। जिन्‍होंने जल-दान किया है, उन्‍हें प्‍यास का कष्‍ट नहीं भोगना पड़ता, वे लोग प्रसन्‍नचित्त होकर वहाँ जाते हैं। दीपदान करने वाले मनुष्‍य उस मार्ग को प्रकाशित करते हुए सुख से यात्रा करते हैं।

गोदान करने वाले मनुष्‍य सब पापों से मुक्‍त हो सुखपूर्वक जाते हैं। एक मास तक उपवास व्रत करने वाले लोग हंस से जुते हुए विमानों द्वारा यात्रा करते हैं। जो लोग छठी रात तक उपवास करते हैं, वे मोर से जुते हुए विमानों द्वारा जाते हैं। पाण्‍डुनन्‍दन! जो लोग एक बार भोजन करके उसी पर तीन रात काट ले जाते हैं और बीच में भोजन नहीं करते, उन्‍हें रोग-शोक से रहित पुण्‍यलोक प्राप्‍त होते हैं। जलदान करने का प्रभाव अत्‍यन्‍त अलौकिक है। वह परलोक में सुख पहुँचाने वाला है। जो जलदान करते हैं, उन पुण्‍यात्‍माओं के लिये उस मार्ग में पुष्‍पोदका नाम वाली नद प्राप्‍त होती है। वे उसका शीतल और अमृत के समान मधुर जल पीते हैं।

महाराज्! इस प्रकार वह नदी सम्‍पूर्ण कामनाओं को देने वाली है; किंतु जो पापी जीव हैं, उनके लिये उस नदी का जल पीब बन जाता है। अत: राजेन्‍द्र! तुम भी इन ब्राह्मणों का विधिपूर्वक पूजन करो। जो रास्‍ता चलने से थककर दुबला हो गया है, जिसका शरीर धूल से भरा है और जो अन्‍नदाता का पता पूछता हुआ भोजन की आशा से घर पर आ जाता है, उसका तुम यत्‍नपूर्वक सत्‍कार करो; क्‍योंकि वह अतिथि है, इसलिये ब्राह्मण ही है अर्थात् ब्राह्मण के ही तुल्‍य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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