द्विशततम (200) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
महाभारत: वन पर्व: द्विशततम अध्याय: श्लोक 29-45 का हिन्दी अनुवाद
अत: युधिष्ठिर! तुम सारे दानों को छोड़कर केवल अन्नदान करते रहो। इस संसार में अन्नदान के समान विचित्र एवं पुण्यदायक दूसरा कोई दान नहीं है। जो अपनी शक्ति के अनुसार अच्छे ढंग से तैयार किया हुआ भोजन ब्राह्मणों को अर्पित करता है, वह उस पुण्यकर्म के प्रभाव से प्रजापति के लोक में जाता है। अत: अन्न ही सबसे महत्व की वस्तु है। उससे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। वेद में अन्न को प्रजापति कहा गया है। प्रजापति संवत्सर माना गया है। संवत्सर यज्ञ रूप है और यज्ञ में सबकी स्थिति है। यज्ञ से समस्त चराचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। अत: अन्न ही सब पदार्थो से श्रेष्ठ है। यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है। जो लोग अगाध जल से भरे हुए तालाब और पोखरे खुदवाते हैं, बावली, कुएं तथा धर्मशालाएं तैयार कराते हैं, अन्न का दान करते और मीठी बातें बोलते हैं, उन्हें यमराज की बात भी नहीं सुननी पड़ती है अर्थात् यमराज उसे वचनमात्र से भी दण्ड नहीं दे सकते। जो अपने परिश्रम से उपार्जित और संचित किया हुआ धन-धान्य सुशील ब्राह्मण को दान करता है, उसके ऊपर वसुधा देवी अत्यन्त संतुष्ट होती और उसके लिये धन की धारा-सी बहाती हैं। अन्न दान करने वाले पुरुष पहले स्वर्ग में प्रवेश करते हैं। उसके बाद सत्यवादी जाता है। फिर बिना मांगे ही दान करने वाला पुरुष जाता है। इस प्रकार ये तीनों पुण्यात्मा मानव समान गति को प्राप्त होते हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर भाइयों सहित धर्मराज युधिष्ठिर के मन में बड़ा कौतूहल हुआ और उन्होंने महात्मा मार्कण्डेय जी से पुन: इस प्रकार प्रश्न किया- ‘महामुने! इस मनुष्य लोक से यमलोक कितनी दूर है, कैसा है, कितना बड़ा है? और किस उपाय से मनुष्य वहाँ के संकटों से पार हो सकते हैं? ये मुझे बतलाइये’। मार्कण्डेय जी ने कहा- धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! तुमने ऐसे विषय के लिये प्रश्न किया है, जो सबसे अधिक गोपनीय, पवित्र, धर्मसम्मत तथा ऋषियों के लिये भी आदरणीय है। सुनो, मैं इस विषय का वर्णन करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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