त्रिसप्तत्यधिशततम (173) अध्याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्रिसप्तत्यधिशततम अध्याय: श्लोक 66-75 का हिन्दी अनुवाद
महाद्युते! मतलि ने मेरा सारा कार्य, जो कुछ जैसे हुआ था, देवराज इन्द्र से विस्तारपूर्वक कह सुनाया। हिरण्यपुर का विध्वंस, दानवी माया का निवारण तथा महाबलवान् निवातकवचों का युद्ध में वध सुनकर मरुत् आदि देवताओं सहित भगवान् सहस्रलोचन इन्द्र अत्यन्त प्रसन्न हो मुझे साधुवाद देने लगे और मुझे प्रेमपूर्वक हृदय से लगाकर मुसकराते हुए मेरा मस्तक सूंघा। तत्पश्चात् देवराज ने बार-बार मुझे सान्त्वना देते हुए देवताओं के साथ यह मधुर वचन कहा- 'पार्थ! तुमने युद्ध में वह कार्य किया है, जो देवताओं ओर असुरों के लिये भी असम्भव है। आज तुमने मेरे महान् शत्रुओं का संहार करके गुरुदक्षिणा चुका दी है। धनंजय! इसी प्रकार तुम्हें सदा युद्धभूमि में अविचल रहना चाहिये और मोहशून्य होकर अस्त्रों का प्रयोग करना चाहिये। देवता, दानव तथा राक्षस कोई भी युद्ध में तुम्हारा सामना नहीं कर सकता। यक्ष, असुर, गन्धर्व, पक्षी तथा नाग भी तुम्हारे सामने नहीं टिक सकते। कुन्तीकुमार! धर्मात्मा कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर तुम्हारे बाहुबल से जीती हुई पृथ्वी का पालन करेंगे।'
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्व में हिरण्यपुरवासी दैत्यों के वध से सम्बन्ध रखने वाला एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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