महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 39 श्लोक 9-14

एकोनचत्वारिंश (39) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकोनचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 9-14 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 15


यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है।[1] शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को भोगते हुए को- इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्त्व से जानते हैं।[2] यत्न करने वाले योगीजन भी अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्त्व से जानते हैं[3] किंतु जिन्‍होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते।[4]

सम्बन्ध- छठे श्लोक पर दो शंकाएं होती हैं- पहली यह कि सबके प्रकाशक सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि आदि तेजोमय पदार्थ परमात्मा को क्यों नहीं प्रकाशित कर सकते और दूसरी यह कि परमधाम को प्राप्त होने के बाद पुरुष वापस क्‍यों नहीं लौटते। इनमें से दूसरी शंका के उत्तर में सातवें श्लोक में जीवात्मा को परमेश्वर सनातन अंश बतलाकर ग्यारहवें श्लोक तक उसके स्वरूप, स्वभाव और व्यवहार का वर्णन करते हुए उसका यथार्थ स्वरूप जानने वालों की महिमा कही गयी। अब पहली शंका का उत्तर देने के लिये भगवान् बारहवें से पन्द्रवें श्लोक तक गुण, प्रभाव और ऐश्वर्यसहित अपने स्वरूप का वर्णन करते हैं।

सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और जो अग्नि में है, उसको तू मेरा ही तेज जान।[5] और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ।[6] और रसस्वरूप अर्थात अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ।[7] मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्निरूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।[8]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वास्तव में आत्मा न तो कर्मों का कर्ता है और न उनके फलस्वरूप विषय एवं सुख-दुःखादिका भोक्ता ही किंतु प्रकृति और उसके कार्यों के साथ जो उसका अज्ञान से अनादि सम्बन्ध माना हुआ है, उसके कारण वह कर्ता-भोक्ता बना हुआ है। (गीता 13/21) श्रुति में भी कहा है- ‘आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भाक्तेत्याहुर्मनीषिणः।’ (कठोपनिषद् 1/3/4) अर्थात् ‘मन’ बुद्धि और इन्द्रियों से युक्त आत्मा को ही ज्ञानीजन भोक्ता- ऐसा समझते हैं।’
  2. ज्ञानीजन शरीर छोड़कर जाते समय, शरीर में रहते समय और विषयों का उपभोग करते समय हरेक अवस्था में ही वह आत्मा वास्तव में प्रकृति से सर्वथा अतीत, शुद्ध, बोधस्वरूप और असंग ही है-ऐसा समझते हैं।
  3. जिनका अन्तःकरण शुद्ध है और अपने वश में है तथा जो आत्मस्वरूप को जानने के लिये निरन्तर श्रवण, मनन और निदिध्यासनादि प्रयत्न करते रहते हैं, ऐसे उच्चकोटि के साधक ही ‘यत्न करने वाले योगीजन’ है तथा जिस जीवात्मा का प्रकरण चल रहा है और जो शरीर के सम्बन्ध से हृदय में स्थित कहा जाता है, उसके नित्य-शुद्ध विज्ञानानन्दमय वास्तविक स्वरूप को यर्थाथ जान लेना ही उनका ‘इस आत्मा को तत्त्व से जानना’ है।
  4. जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है अर्थात् न तो निष्काम कर्म आदि के द्वारा जिनके अन्तःकरण का मल सर्वथा धुल गया है एवं न जिन्‍होंने भक्ति आदि के द्वारा चित्त को स्थिर करने का ही कभी समुचित अभ्यास किया है, ऐसे मलिन और विक्षिप्त अन्तःकरण वाले पुरुषों को ‘अकृतात्मा’ कहतें हैं। ऐसे मनुष्य अपने अन्तःकरण को शुद्ध बनाने की चेष्टा न करके यदि केवल उस आत्मा को जानने के लिये शास्त्रलोचन रूप प्रयत्न करते रहें तो भी उसके तत्त्व को नहीं समझ सकते।
  5. सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि में स्थित समस्त तेज को अपना तेज बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि उन तीनों में और वे जिनके देवता है-ऐसे नेत्र, मन और वाणी में वस्तु को प्रकाशित करने की जो कुछ भी शक्ति है-वह मेरे ही तेज का एक अंश है। इसीलिये छठे श्लोक में भगवान् ने कहा है कि सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि -ये सब मेरे स्वरूप को प्रकाशित करने में समर्थ नहीं हैं।
  6. इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि इस पृथ्वी में जो भूतों को धारण करने की शक्ति प्रतीत होती है तथा इसी प्रकार और किसी में जो धारण करने की शक्ति है, वह वास्तव में उसकी नहीं, मेरी ही शक्ति का अंश है। अतएव में स्वयं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपने बल से समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ।
  7. ‘औषधिः’ शब्द पत्र, पुष्प और फल आदि समस्त अंग प्रत्यंगों के सहित वृक्ष, लता और तृण आदि जिनके भेद है-ऐसी समस्त वनस्पतियों का वाचक है तथा ‘मैं ही चन्द्रमा बनकर समस्त औषधियों का पोषण करता हूं’ इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि जिस प्रकार चन्द्रमा में प्रकाशन शक्ति मेरे ही प्रकाश का अंश है, उसी प्रकार जो उसमें पोषण करने की शक्ति है, वह भी मेरा ही शक्ति का अंश है अतएव मैं ही चन्द्रमा के रूप में प्रकट होकर सबका पोषण करता हूँ।
  8. यहाँ भगवान् यह बतला रहे हैं कि जिस प्रकार अग्नि की प्रकाशन शक्ति मेरे ही तेज का अंश है, उसी प्रकार उसका जो उष्णत्व है अर्थात् उसकी जो पाचन, दीपन करने की शक्ति है, वह भी मेरी ही शक्ति का अंश है अतएव मैं ही प्राण और अपान से संयुक्त प्राणियों के शरीर में निवास करने वाले वैश्वानर अग्नि के रूप् में भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य पदार्थों को अर्थात दांतों से चबाकर खाये जाने वाले रोटी, भात आदि निगलकर खाये जाने वाले रबड़ी, दूध, पानी आदि चाटकर खाये जाने वाले शहद, चटनी आदि को चूसकर खाये जाने वाले ऊख आदि- ऐसे चार प्रकार के भोजन को पचाता हूँ।

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