महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 35 श्लोक 41-46

पञ्चत्रिंश (35) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: पञ्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 41-46 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 11


आपके इस प्रभाव को न जानते हुए, आप मेरे सखा हैं ऐसा मानकर प्रेम से अथवा प्रमाद से भी मैंने ‘हे कृष्‍ण!’ ‘हे यादव!’ ‘हे सखे!’ इस प्रकार जो कुछ बिना सोचे-समझे हठात कहा है[1] और हे अच्‍युत! आप जो मेरे द्वारा विनोद के लिये विहार, शय्‍या, आसन और भोजनादि में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमानित किये गये हैं- वह सब अपराध अप्रमेयस्‍वरूप अर्थात अचिन्‍त्‍य प्रभाव वाले आपसे मैं क्षमा करवाता हूं।[2] आप इस चराचर जगत के पिता और सबसे बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं,[3] हे अनुपम प्रभाव वाले! तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक तो कैसे हो सकता है। अतएव हे प्रभो! मैं शरीर को भलीभाँति चरणों में निवेदित कर, प्रणाम करके, स्‍तुति करने योग्‍य आप ईश्‍वर को प्रसन्‍न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ।[4] हे देव! पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रियतमा पत्‍नी के अपराध स‍हन करते हैं- वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने योग्‍य हैं।[5]

संबंध- इस प्रकार भगवान से अपने अपराधों के लिये क्षमा-याचना करके अब अर्जुन दो श्लोक में भगवान से चतुर्भुजरूप का दर्शन कराने के लिये प्रार्थना करते हैं- मैं पहले न देखे हुए आपके इस आश्चर्यमय रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अति व्‍याकुल भी हो रहा है,[6] इसलिये आप उस अपने चतुर्भुज विष्णु रूप को ही मुझे दिखलाइये। हे देवेश! हे जगन्निवास! प्रसन्‍न होइये। मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किये हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिये हुए देखना चाहता हूं,[7] इसलिये हे विश्वरूप! हे सहस्रबाहो! आप उसी चतुर्भुजरूप से प्रकट होइये।[8] संबंध- अर्जुन की प्रार्थना पर अब अगले दो श्‍लोक में भगवान् अपने विश्वरूप की महिमा और दुर्लभता का वर्णन करते हुए उन्चासवें श्‍लोक में अर्जुन को आश्वासन देकर चतुर्भुज रूप देखने के लिये कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपकी अप्रतिम और अपार महिमा को न जानने के कारण ही मैंने आपको अपनी बराबरी का मित्र मान रखा था, इसीलिये मैंने बातचीत में कभी आपके महान गौरव और सर्वपूज्‍य महत्त्व का ख्‍याल नहीं रखा; अत: प्रेम या प्रमाद से मेरे द्वारा निश्चय ही बड़ी भूल हुई। बड़े-से-बडे़ देवता और महर्षिगण जिन आपके चरणों की वंदना करना अपना सौभाग्‍य समझते हैं, मैंने उन आपके साथ बराबरी का बर्ताव किया।
    प्रभो! कहाँ आप और कहाँ मैं! मैं इतना मूढ़मति हो गया कि आप परम पूजनीय परमेश्वर को मैं अपना मित्र ही मानता रहा और किसी भी आदरसूचक विशेषण का प्रयोग न करके सदा बिना सोचे-समझे ‘कृष्‍ण’, ‘यादव’ और ‘सखे’ आदि कहकर आपको तिरस्‍कारपूर्वक पुकारता रहा।
  2. यहाँ अर्जुन कह रहे हैं कि प्रभो! आपका स्‍वरूप और महत्त्‍व अचिन्‍त्‍य है। उसको पूर्णरूप से तो कोई भी नहीं जान सकता। किसी को उसका थोड़ा-बहुत ज्ञान होता है तो वह आपकी कृपा से ही होता है। यह आपके परम अनुग्रह का ही फल है कि मैं-जो पहले आपके प्रभाव को नहीं जानता था और इसीलिये आपका अनादर किया करता था- अब आपके प्रभाव को कुछ-कुछ जान सका हूँ। अवश्‍य ही ऐसी बात नहीं है कि मैंने आपका सारा प्रभाव जान लिया है; सारा जानने की बात तो दूर रही- मैं तो अभी उतना भी नहीं समझ पाया हूं, जितना आपकी दया मुझे समझा देना चाहती है। परंतु जो कुछ समझा हूं, उसी से मुझे यह भलीभाँति मालूम हो गया है कि आप सर्वशक्तिमान साक्षात परमेश्वर हैं। मैंने जो आपको अपनी बराबरी का मित्र मानकर आपसे जैसा बर्ताव किया, उसे मैं अपराध मानता हूँ और ऐसे समस्‍त अपराधों के लिये मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ।
  3. इस कथन से अर्जुन ने अपराध क्षमा करने के औचित्‍य का प्रतिपादन किया है। वे कहते हैं- ‘भगवन! यह सारा जगत आप ही से उत्‍पन्‍न है, अतएव आप ही इसके पिता हैं; संसार में जितने भी बड़े-बड़े़ देवता, महर्षि और अन्‍यान्‍य समर्थ पुरुष हैं, उन सबमें सबकी अपेक्षा बड़े ब्रह्मा जी हैं; क्‍योंकि सबसे पहले उन्‍हीं का प्रादुर्भाव होता है और वे ही आपके नित्‍य ज्ञान के द्वारा सबको यथायोग्‍य शिक्षा देते हैं, परंतु हे प्रभो! वे ब्रह्मा जी भी आप ही से उत्‍पन्‍न होते हैं और उनको वह ज्ञान भी आप ही से मिलता है। अतएव हे सर्वेश्वर! सबसे बडे़, सब बड़ों-से-बड़ें और सबके एकमात्र महान गुरु आप ही हैं। समस्‍त जगत जिन देवताओं की और महर्षियों की पूजा करता है, उन देवताओं के और महर्षियों के भी परम पूज्‍य तथा नित्‍य वंदनीय ब्रह्मा आदि देवता और वसिष्‍टादि महर्षि यदि क्षणभर के लिये आपके प्रत्‍यक्ष पूजन या स्‍तवन का सुअवसर पा जाते हैं तो अपने को महान भाग्‍यवान समझते हैं। अतएव सब पूजनीय के भी परम पूजनीय आप ही है, इसलिये मुझ क्षुद्र के अपराधों को क्षमा करना आपके लिये सभी प्रकार से उचित है।
  4. जो सबका नियमन करने वाले स्‍वामी हों, उन्‍हें ‘ईश’ कहते हैं और जो स्‍तुति के योग्‍य हों, उन्‍हें ‘ईड्य’कहते हैं। इन दोनों विशेषणों का प्रयोग करके अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि हे प्रभो! इस समस्‍त जगत का नियमन करने वाले यहाँ तक कि इन्द्र, आदित्य, वरुण, कुबेर और यमराज] आदि लोकनियंता देवताओं को भी अपने नियम में रखने वाले आप-सबके एकमात्र महेश्वर हैं और आपके गुण गौरव तथा महत्त्व का इतना विस्‍तार है कि सारा जगत सदा-सर्वदा आपका स्‍तवन करता रहे त‍ब भी उसका पार नहीं पा सकता; इसलिये आप ही वस्‍तुत: स्‍तुति के योग्‍य हैं। मुझमें न तो इतना ज्ञान है और न वाणी में ही बल हैं कि जिससे मैं स्‍तवन करके आपको प्रसन्‍न कर सकूं। मैं अबोध भला आपका क्‍या स्‍तवन करूं? मैं आपका प्रभाव बतलाने में जो कुछ भी कहूंगा वह वास्‍तव में आपके प्रभाव की छाया को भी न छू सकेगा; इसलिये वह आपके प्रभाव को घटाने वाला ही होगा। अत: मैं तो बस, इस शरीर को ही लकड़ी की भाँति आपके चरणप्रांत में लुटाकर-समस्‍त अंगों के द्वारा आपको प्रणाम करके आपकी चरणधूलि के प्रसाद से ही आपकी प्रसन्‍नता प्राप्‍त करना चाहता हूँ। आप कृपा करके मेरे सब अपराधों को भुला दीजिये और मुझ दीन पर प्रसन्‍न हो जाइये।
  5. यहाँ अर्जुन यह प्रार्थना कर रहे है कि जैसे अज्ञान में प्रमादवश किये हुए पुत्र के अपराधों को पिता क्षमा करता है, हंसी-मजाक में किये हुए मित्र के अपराधों को मित्र सहता है और प्रेमवश किये हुए प्रियतमा पत्‍नी के अपराधों को पति क्षमा करता है- वैसे ही मेरे तीनों ही कारणों से बने हुए समस्‍त अपराधों को आप क्षमा कीजिये।
  6. अर्जुन ने इससे यह भाव दिखलाया है कि आपके इस अलौकिक रूप में जब मैं आपके गुण, प्रभाव और ऐश्वर्य की ओर देखकर विचार करता हूँ तब तो मुझे बड़ा भारी हर्ष होता है कि ‘अहो! मैं बड़ा ही सौभाग्‍यशाली हूं, जो साक्षात परमेश्वर-की मुझ तुच्‍छ पर इतनी अनंत दया और ऐसा अनोखा प्रेम है कि जिससे वे कृपा करके मुझको अपना यह अलौकिक रूप दिखला रहे हैं; परंतु इसी के साथ जब आपकी भयावनी विकराल मूर्ति की ओर दृष्टि जाती है, तब मेरा मन भय से कांप उठता है और मैं अत्‍यंत व्‍याकुल हो जाता हूँ।
  7. महाभारत-युद्ध में भगवान ने शस्त्र-ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की थी और अर्जुन के रथ पर वे अपने हाथों में चाबुक और घोड़ों की लगाम थामे विराजमान थे; परंतु इस समय अर्जुन भगवान के इस द्विभुज रूप को देखने से पहले उस चतुर्भुज रूप को देखना चाहते हैं, जिसके हाथों में गदा और चक्रादि हैं।
  8. (1) यदि चतुर्भुज रूप श्रीकृष्‍ण का स्‍वाभाविक रूप होता तो फिर ‘गदिनम्’ और ‘चक्रहस्‍तम्’ कहने की कोई आवश्‍यकता न थी, क्‍योंकि अर्जुन उस रूप को सदा देखते ही थे। वरं ‘चतुर्भुज’ कहना भी निष्‍प्रयोजन था; अर्जुन का इतना ही कहना पर्याप्‍त होता कि मैं अभी कुछ देर पहले जो रूप देख रहा था, वही दिखलाइये।
    (2) पिछले श्‍लोक में ‘देवरूपम्’ पद आया है, जो आगे इक्‍यावनवें श्‍लोक में आये हुए ‘मानुषं रूपम्’ से सर्वथा विलक्षण अर्थ रखता है; इससे भी सिद्ध है कि देवरूप से श्री विष्‍णु का ही कथन किया गया है।
    (3) आगे पचासवें श्‍लोक में आये हुए ‘स्‍वकं रूपम्’ के साथ ‘भूय:’ और ‘सौम्‍यवपु:’ के साथ ‘पुन:’ पद आने से भी यहाँ पहले चतुर्भुज और फिर द्विभुज मानुषरूप दिखलाया जाना सिद्ध होता है।
    (4) आगे बावनवें श्‍लोक में ‘सुदुर्दर्शम्’ पद से यह दिखलाया गया है कि यह रूप अत्‍यंत दुर्लभ है और फिर कहा गया है कि देवता भी इस रूप को देखने की नित्‍य आकांक्षा करते हैं। यदि श्रीकृष्‍ण का चतुर्भुज रूप स्‍वाभाविक था, तब तो वह रूप मनुष्‍यों को भी दिखता था; फिर देवता उसकी सदा आकांक्षा क्यों‍ करने लगे? यदि यह कहा जाय कि विश्वरूप लिये ऐसा कहा गया है तो ऐसे घोर विश्वरूप की देवताओं को कल्‍पना भी क्‍यों होने लगी, जिसकी दाढ़ों में भीष्‍म-द्रोणादि चूर्ण हो रहे हैं। अतएव यही प्रतीत होता है कि देवतागण वैकुण्‍ठवासी श्रीविष्‍णुरूप के दर्शन की ही आकांक्षा करते हैं।
    (5) विराट स्‍वरूप की महिमा आगे अड़तालीसवें श्‍लोक में ‘न वेदयज्ञाध्‍ययनै:’ इत्‍यादि के द्वारा गायी गयी, फिर तिरपनवें श्‍लोक में ‘नाहं वेदैर्न तपसा’ आदि में पुन: वैसी ही बात आती है। यदि दोनों जगह एक ही विराट रूप की महिमा है तो इसमें पुनरूक्तिदोष आता है; इससे भी सिद्ध है कि मानुषरूप दिखलाने के पहले भगवान ने अर्जुन को चतुर्भुज देवरूप दिखलाया और उसी की महिमा में तिरपनवां श्‍लोक कहा गया।
    (6) इसी अध्‍याय के चौबीसवें और तीसवें श्‍लोकों में अर्जुन ने ‘विष्‍णो’ पद से भगवान को सम्‍बोधित भी किया है। इससे भी उनके विष्‍णुरूप देखने की आकांक्षा प्रतीत होती है। इन हेतुओं से यही सिद्ध होता है कि यहाँ अर्जुन भगवान श्रीकृष्‍ण से चतुर्भुज विष्‍णुरूप दिखलाने के लिये प्रार्थना कर रहे हैं।

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