महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 32 श्लोक 23-28

द्वात्रिंश (32) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

Prev.png

महाभारत: भीष्म पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 23-28 का हिन्दी अनुवाद
श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 8

हे अर्जुन! जिस काल में[1]शरीर त्यागकर गये हुए योगीजन[2]तो वापस न लौटने वाली गति को और जिस काल में गये हुए वापस लौटने वाली गति को ही प्राप्त होते है, उस काल को अर्थात् दोनों मार्गों को कहूंगा। जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि[3]अभिमानी देवता[4]है, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल[5]पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण[6]के छ: महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता[7]योगीजन उपर्युक्त देवताओं-द्वारा क्रम से ले जाये जाकर ब्रह्म को[8]प्राप्त होते हैं

जिस मार्ग में धूमाभिमानी[9]देवता है, रात्रि[10]-अभिमानी देवता है तथा कृष्‍णपक्ष[11] का अभिमानी देवता है ओर दक्षिणायन[12]के छ: महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गया हुआ सकाम कर्म करने वाला योगी[13]उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चन्द्रमा की ज्योतिको[14]प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभकर्मों का फल भोगकर वापस आता है।[15]

क्योंकि जगत् के ये दो प्रकार के- शुक्ल और कृष्‍ण अर्थात् देवयान और पितृयान मार्ग सनामन माने गये है।[16]इनमें एक के द्वारा गया हुआ[17]-जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परम गति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ[18] फिर वापस आता है अर्थात् जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है। हे पार्थ! इस प्रकार इन दोनों मार्गों को तत्त्व से जानकर कोई भी योगी मोहित नहीं होता।[19]इस कारण हे अर्जुन! तू सब काल में समबु‍दि रूपी योग से हो[20]अर्थात् निरन्तर मेरी प्राप्ति के लिये साधन करने वाला हो। योगी पुरुष इस रहस्य को तत्त्व से जानकर[21]वेदों के पढ़ने में तथा यज्ञ‚ तप और दानादि के करने में जो पुण्यफल कहा है‚ उस सबको निःसंदेह उल्लघन कर जाता है[22]और सनातन परम पदको प्राप्त होता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के श्रीमदभगवद्रीता पर्व के अन्तर्गत ब्रहम विद्या एवं योगशास्त्र रूप श्रीमदभगवद्रीतेपनिषद्] श्रीकृष्णार्जुन संवाद में अक्षर ब्रहमयोग नामक 8 अध्याय पूरा हुआ। भीष्‍म पर्व में बत्‍तीसवॉ अध्‍याय पूरा हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यहाँ ‘काल शब्द उस मार्ग का वाचक है, जिसमें कालाभिमानी भिन्न-भिन्न देवताओं का अपनी-अपनी सीमा तक अधिकार हैं; क्योंकि इस अध्‍याय के छब्बीसवें श्‍लोक में इसी को ‘शुक्ल’ और ‘कृष्‍ण’ दो प्रकार की ‘गति’ के नाम से और सत्ताईसवें श्‍लोक में ‘सृति’ के नाम से कहा है। वे दोनों ही शब्द मार्गवाचक हैं। इसके सिवा ‘अग्नि:’,’ज्योति:’, और ‘धूम:’ पद भी समय वाचक नहीं हैं। अतएव चौबीसवें और पचीसवें श्‍लोकों में आये हुए ‘तत्र’ पद का अर्थ ‘समय’ मानना उचित नहीं होगा। इसीलिये यहाँ ‘काल’ शब्द का अर्थ कालाभिमानी देवताओं से सम्बन्ध रखने वाला ‘मार्ग’ मानना ही ठीक है। संसार में लोग जो दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के समय मरना अच्छा समझते हैं, यह समझना भी एक प्रकार से ठीक ही हैं; क्योंकि उस समय उस-उस कालाभिमानी देवताओं के साथ तत्काल सम्बन्ध हो जाता हैं। अत: उस समय मरने वाला योगी गन्तव्य स्थान तक शीघ्र और सुगमता से पहुँच जाता हैं। पर इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि रात्रि के समय मरने वाला तथा कृष्‍ण पक्ष में और दक्षिणायन के छ: महीनों में मरने वाला अर्चिमार्ग से नहीं जाता; बल्कि यह समझना चाहिये कि चाहे जिस समय मरने पर भी, वह जिस मार्ग से जाने का अधिकारी होगा, उसी मार्ग से जायगा।
  2. ’योगीजन’ से यह बात समझनी चाहिये कि जो साधारण मनुष्‍य इसी लोक में एक योनि से दूसरी योनि में बदलने वाले हैं या जो नरकादि में जानने वाले हैं, उनकी गति का यहाँ वर्णन नहीं है।
  3. यहाँ ‘ज्योति:’ पद ‘अग्नि:’ का विशेषण है और ‘अग्नि:’ पद अग्नि-‍अभिमानी देवता का वाचक हैं। उपनिषदों में इसी देवता को ‘अर्चि:’ कहा गया है। इसका स्वरूप दिव्य प्रकाशमय है, पृथ्‍वी के ऊपर समुद्र सहित सब देश में इसका अधिकार है तथा उत्तरायण-मार्ग में जाने वाले अधिकारी का दिन के अभिमानी देवता से सम्बन्ध करा देना ही इसका काम है। उत्तरायण मार्ग से जाने वाला जो उपासक रात्रि में शरीर त्याग करता है, उसे यह रातभर अपने अधिकार में रखकर दिन के उदय होने पर दिन के अभिमानी देवता के अधीन कर देता है और जो दिन में मरता है, उसे तुरंत ही दिन के अभिमानी देवता को सौंप देता है।
  4. ’अह:’ पद दिन के अभिमानी देवता का वाचक है, इसका स्वरूप अग्नि-‍अभिमानी देवता की अपेक्षा बहुत अधिक दिव्य प्रकाशमय है। जहाँ त‍क पृथ्‍वी-लोक की सीमा है अर्थात् जितनी दूर तक आकाश में पृथ्‍वी के वायुमण्‍डल का सम्बन्ध है, वहाँ तक इसका अधिकार है और उत्तरायण मार्ग में जाने वाले उपासक को शुक्ल पक्ष के अभिमानी देवता से सम्बन्ध करा देना ही इसका काम है। अभिप्राय यह है कि उपासक यदि कृष्‍ण पक्ष में मरता है तो शुक्ल पक्ष आने त‍क उसे यह अपने अधिकार में रखकर और यदि शुक्ल पक्ष में मरता है तो तुरंत ही अपनी सीमा तक ले जाकर उसे शुक्ल पक्ष के अभिमानी देवता के अधीन कर देता है।
  5. ’शुक्ल:’ पद शुक्लपक्षाभिमानी देवता का वाचक है। इसका स्वरूप दिन के अभिमानी देवता से भी अधिक दिव्य प्रकाशमय है। भूलोक की सीमा से बाहर अन्तरिक्षलोक में- जिन पितृ-लोकों में पंद्रह दिन के दिन और उतने ही समय की रात्रि होती है, वहाँ तक इसका अधिकार है और उत्तरायण मार्ग से जाने वाले अधिकारी को अपनी सीमा से पार करके उत्तरायण के अभिमानी देवता के अधीन कर देना इसका काम है। यह भी पहले वालों की भाँति यदि साधक दक्षिणायन में इसके अधिकार में आता है तो उत्तरायण का समय आने तक उसे अपने अधिकार में रखकर और यदि उत्तरायण में आता है तो तुरंत ही अपनी सीमा से पार करके उत्तरायण-अभिमानी देवता के अधिकार में सौंप देता है।
  6. जिन छ: महीनों में सूर्य उत्तर दिशा की ओर चलते रहते हैं, उस छमाही को उत्तरायण कहते हैं। उस उतरायण-कालाभिमानी देवता का वाचक यहाँ ‘षण्‍मासा’ उत्तरायणम्’ पद है। इसका स्वरूप शुक्लपक्षाभिमानी देवता से भी बढ़कर दिव्य प्रकाशमय है। अन्तरिक्ष लोक के ऊपर जिन देवताओं के लोकों में छ: महीनों के दिन एवं उतने ही समय की रात्रि होती है, वहाँ त‍क इसका अधिकार है और उतरायण-मार्ग से परमधाम को जाने वाले अधिकारी को अपनी सीमा से पार करके, उपनिषदों में वर्णित- (छान्दोग्य उप. 4/15/5 तथा 5/10/1,2; बृहदारण्‍यक उप. 6/2/15) संवत्सर कं अभिमानी देवता के पास पहुँचा देना इसका काम हैं। वहाँ से आगे संवत्सर का अभिमानी देवता उसे सूर्यलोक में पहुँचाता है। वहाँ से क्रमश: आदित्याभिमानी देवता चन्द्राभिमानी देवता के अधिकार में और वह विद्युत-अभिमानी देवता के अधिकार में पहुँचा देता है। फिर वहाँ पर भगवान् के परमधाम से भगवान् के पार्षद आकर उसे परम धाम में ले जाते है और तब उसका भगवान् से मिलन हो जाता है। ध्‍यान रहे कि इस वर्णन में आया हुआ ‘चन्द्र’ शब्द हमें दीखने वाले चन्दलोक का और उसके अभिमानी देवता का वाचक नहीं है।
  7. इस श्‍लोक में ‘ब्रह्मविद:’ पद निर्गुण ब्रह्म के तत्त्व को या सगुण परमेश्‍वर के गुण, प्रभाव, तत्त्व ओर स्वरूप को शास्त्र और आचार्यों के उपदेशानुसार श्रद्धापूर्वक परोक्षभाव से जानने वाले उपासकों का तथा निष्‍काम भाव से कर्म करने वाले कर्म योगियों का वाचक हैं। यहाँ का ‘ब्रह्मविद:’ पद परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त ज्ञानी महात्माओं का वाचक नहीं है; क्योंकि उनके लिये एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन का वर्णन उपयुक्त नहीं है। श्रुति में भी कहा है- ‘न तस्य प्राणा ह्यत्क्रामन्ति’ (बृहदारण्‍यक उप० 4/46), ‘अत्रैव समवलीयन्ते’ (बृहदारण्‍यक उप० 3/2/11), ‘ब्रह्यैव सन् ब्रह्माप्येति’ (बृहदारण्‍यक उप० 4/4/6) अर्थात ‘क्योंकि उसके प्राण उत्क्रान्ति को नहीं प्राप्त होते- शरीर से निकलकर अन्यत्र नहीं जाते’, ‘यहीं पर लीन हो जाते हैं’, ‘वह ब्रह्म हुआ ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।’
  8. यहाँ ‘ब्रह्म’ शब्द सगुण परमेश्‍वर का वाचक है। उनके कभी नाश न होने वाले नित्य धामें, जिसे सत्यलोक, परम धाम, साकेतलोक, गोलोक, वैकुण्‍ठलोक आदि नामों से कहा है, पहुँचकर भगवान् को प्रत्यक्ष कर लेना ही उनको प्राप्त होना है।
  9. यहाँ ‘धूम:’ पद धूमाभिमानी देवता का अर्थात् अन्धकार के अभिमानी देवता का वाचक है। उसका स्वरूप अन्धकारमय होता है। अग्नि-अभिमानी देवता की भाँति पृथ्‍वी के ऊपर समुद्र सहित समस्त देश में इसका भी अधिकार है तथा दक्षिणायन मार्ग से जाने वाले साधकों को रात्रि-अभिमानी देवता के पास पहुँचा देना इसका काम है। दक्षिणायन-मार्ग से जाने वाला जो साधक दिन में मर जाता हैं, उसे यह दिन भर अपने अधिकार में रखकर रात्रि का आरम्भ होते ही रात्रि-अभिमानी देवता को सौंप देता है और जो रात्रि में मरता है, उसे तुरंत ही रात्रि-अभिमानी देवता के अधीन कर देता है।
  10. यहाँ ‘रात्रि:’ पद को भी रात्रि के अभिमानी देवता का ही वाचक समझना चाहिये। इसका स्वरूप अन्धकारमय होता है। दिन के अभिमानी देवता की भाँति इसका अधिकार भी जहाँ तक पृथ्‍वी लोक की सीमा है, वहाँ तक है। भेद इतना ही है कि पृथ्‍वी लोक में जिस समय जहाँ दिन रहता है, वहाँ दिन के अभिमानी देवता का अधिकार रहता है और जिस समय जहाँ रात्रि रहती है, वहाँ रात्रि-‍अभिमानी देवता का अधिकार रहता है। दक्षिणायन मार्ग से जाने वाले साधक को पृ‍थ्‍वी लोक की सीमा से पार करके अन्तरिक्ष में कृष्‍ण पक्ष के अभिमानी देवता के अधीन कर देना इसका काम है। यदि वह साधक शुक्ल पक्ष में रहता है, तब तो उसे कृष्‍ण पक्ष के आने तक अपने अधिकार में रखकर ओर यदि कृष्‍ण पक्ष में मरता है तो तुरंत ही अपने अधिकार से पार करके कृष्‍ण पक्ष‍ाभिमानी देवता के अधीन कर देता है।
  11. कृष्‍णपक्षाभिमानी देवता का वाचक यहाँ ‘कृष्‍ण:’ पद है। इसका स्वरूप भी अन्धकारमय हेाता है। पृथ्‍वी-मण्‍डल की सीमा के बाहर अन्तरिक्ष लोक में, जिन पितृ लोकों में पंद्रह दिन का दिन और उतने ही समय की रात्रि हेाती है, वहाँ तक इसका भी अधिकार है। भेद इतना ही है कि जिस समय जहाँ उस लोक में शुक्ल पक्ष रहता है, वहाँ शु्क्लपक्षाभिमानी देवता का अधिकार रहता है ओर जहाँ कृषण पक्ष रहता है, वहाँ कृष्‍णपक्षाभिमानी देवता का अधिकार रहता है। दक्षिणायन-मार्ग से स्वर्ग में जाने वाले साधकों को दक्षिणायनाभिमानी देवता के अधीन कर देना इसका काम है। जो दक्षिणायन-मार्ग का अधिकारी साधक उत्तरायण के समय इसके अधिकार में आता है, उसे दक्षिणायन का समय आने तक अपने अधिकार में रखकर और जो दक्षिणायन के समय आता है, उसे तुरंत ही यह अपने अधिकार से पार करके दक्षिणायनाभिमानी देवता के पास पहुँचा देता है।
  12. .जिन छ: महीनों में सूर्य दक्षिण दिशा की ओर चलते रहते हैं, उस छमाही को दक्षिणायन कहते है। उसके अभिमानी देवता का वाचक यहाँ ‘दक्षिणायनम्’ पद है। इसका स्वरूप भी अन्धकारमय होता है। अन्तरिक्ष लोक के ऊपर जिन देवताओं के लोकों में छ: महीनों का दिन और छ: महीनों की रात्रि होती है, वहाँ तक इसका भी अधिकार है। भेद इतना ही है कि उत्तरायण के छ: महीनों में उसके अभिमानी देवता का वहाँ अधिकार रहता है और दक्षिणायन के छ: महीनों में इसका अधिकार रहता है। दक्षिणायन मार्ग से स्वर्ग में जाने वाले साधकों को अपने अधिकार से पार करने उपनिषदों में वर्णित पितृलोकाभिमानी देवता के अधिकार में पहुँचा देना इसका काम है। वहाँ से पितृलोकाभिमानी देवता साधक को आकाशाभिमानी देवता के पास ओर वह आकाशाभिमानी देवता चन्द्रमा के लोक में पहुँचा देता है (छान्दोग्य उप० 5/10/4 बृहदारण्‍यक उप० 6/2/16)। यहाँ चन्द्रमा का लोक उपलक्षण मात्र है; अत: ब्रह्मा के लोक तक जितने भी पुनरागमनशील लोक हैं, चन्द्रलोक से उन सभी को समझ लेना चाहिये। ध्‍यान रहे कि उपनिषदों में वर्णित यह पितृलोक वह पितृलोक नहीं है, जो अन्तरिक्ष के अन्तर्गत है और जहाँ पंद्रह दिन का दिन और उतने ही समय की रात्रि होती है।
  13. स्वर्गादि के लिये पुण्‍य‍कर्म करने वाला पुरुष भी अपनी ऐहिक भोगों की प्रवृति का निरोध करता है, इस दृष्टि से उसे भी ‘योगी’ कहना उचित है। इसके सिवा योगभ्रष्‍ट पुरुष भी इस मार्ग से स्वर्ग में जाकर वहाँ कुछ काल तक निवास करके वापस लौटते हैं। वे भी इसी मार्ग से जाने वालों में है। अत: उनको ‘योगी’ कहना उचित ही है। यहाँ ‘योगी’ शब्द का प्रयोग करके यह बात भी दिखलायी गयी है कि यह मार्ग पापकर्म करने वाले तामस मनुष्‍यों के लिये नहीं है, उच्च लोको की प्राप्ति के अधिकारी शास्त्रीय कर्म करने वाले पुरुषों के लिये ही है। (गीता 2/42,43,44 तथा 9/20,21 आदि)
  14. चन्द्रमा के लोक में उसके अभिमानी देवता का स्वरूप शीतल प्रकाशमय है। उसी के जैसे प्रकाशमय स्वरूप का नाम ‘ज्योति’ है और वैसे ही स्वरूप को प्राप्त हो जाना-चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होना है। वहाँ जाने वाला साधक उस लोक में शीतल प्रकाशमय दिव्य देवशरीर पाकर अपने पुण्‍यकर्मों के फलस्वरूप दिव्य भोगों को भोगता है।
  15. चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर वहाँ रहने का नियत समय समाप्त हो जाने पर इस मृत्यु लोक में वापस आ जाना ही वहाँ से लौटना है। जिन कर्मों के फलस्वरूप स्वर्ग ओर वहाँ के भोग प्राप्त होते हैं, उनका भोग समाप्त हो जाने से जब वे क्षीण हो जाते हैं, तब प्राणी को बाध्‍य होकर वहाँ से वापस लोटना पड़ता है। वह चन्द्रलोक से आकाश में आता हैं, वहाँ से वायुरूप हो जाता है, फिर धूम के आकाश में परिणत हो जाता है, धूम से बादल में आता है, बादल से मेघ बनता है, इसके अनन्तर जल के रूप में पृथ्‍वी पर बरसता है, वहाँ गेहूं, जौ, तिल, उड़द आदि बीजों में या वनस्पतियों में प्रविष्‍ट होता है। उनके द्वारा पुरुष के वीर्य में प्रविष्‍ट होकर स्त्री की योनि में सींचा जाता है और अपने कर्मानुसार योनि को पाकर जन्म ग्रहण करता है। (छान्दोम्य उप० 5/10/5,6,7; बृहदारण्‍यक उप० 6/2/16)
  16. चोरासी लाख योनियों में भटकते-भटकते कभी-न-कभी भगवान् दया करके जीवमात्र को मनुष्‍य शरीर देकर अपने तथा देवताओं के लोकों में जाने का सुअवसर देते है। उस समय यदि वह जीवन का सदुपयोग करे तो दोनों में से किसी एक मार्ग के द्वारा गन्तव्य स्थान को अवश्‍य प्राप्त कर सकता है। अतएव प्रकारान्त से प्राणिमात्र के साथ इन दोनों मार्गों का सम्बन्ध है। ये मार्ग सदा से ही समस्त प्राणियों के लिये हैं और सदैव रहेंगे। इसीलिये इनको शाश्र्वत कहा है। यद्यपि महाप्रलय में जब समस्त लोक भगवान् में लीन हो जाते हैं, उस समय ये मार्ग ओर इनके देवता भी लीन हो जाते हैं, तथापि जब पुन: सृष्टि होती है, तब पूर्व की भाँति ही इनका पुन: निर्माण हो जाता हैं। अत: इनको ‘शाश्र्वत’ कहने में कोई दोष नहीं है।
  17. अर्थात् इसी अध्‍याय के 24 वें श्‍लोक के अनुसार अर्चिमार्ग से गया हुआ योगी।
  18. अर्थात् इसी अध्‍याय के 25 वें श्‍लोक के अनुसार धूममार्ग से गया हुआ सकाम कर्मयोगी।
  19. योगसाधना में लगा हुआ भी मनुष्‍य इन मार्गों का तत्त्व न जानने के कारण स्वभाव वश इस लोक या परलोक के भोगों में आसक्त होकर साधन से भ्रष्‍ट हो जाता है, यही उसका मोहित होना हैं; किंतु जो इन दोनों मार्गों को तत्त्व से जानना हे, वह फिर ब्रह्मलोक पर्यन्त समस्त लोकों के भोगों को नाशवान् ओर तुच्छ समझ लेने के कारण किसी भी प्रकार के भोगों में आसक्त नहीं होता एवं निरन्तर परमेश्‍वर की प्राप्ति के ही साधन में लगा रहता है। यही उसका मोहित न होना हैं।
  20. यहाँ भगवान् ने जो अर्जुन को सब काल में योग युक्त होने के लिए कहा है‚ यह भाव है कि मनुष्य जीवन बहुत थोड़े ही दिनों का हैं‚मृत्यु का कुछ भी पता नहीं है कि कब आ जाय। यदि अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को साधन में लगाये रखने का प्रयत्न नहीं किया जायेगा तो साधन बीच-बीच में छूटता रहेगा और यदि कहीं साधनहीन अवस्था में मृत्यु हो जायेगी तो योग भ्रष्ट होकर पुनः जन्म ग्रहण करना पड़ेगा। अतएव मनुष्य को भवगत् प्राप्ति के साधन में नित्य - निरन्तर लगे ही रहना चाहिये।
  21. इस अध्याय में वर्णित शिक्षा को अर्थात्‍ भगवान्‍ के सगुण-निर्गुण और साकार- निराकार स्वरूप की उपासना की‚ भगवान् के गुण‚प्रभाव और माहात्म्यको एवं किस प्रकार साधन करने से मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर सकता है‚कहा जाकर मनुष्य को लौटना पड़ता है और कहाँ पहॅुच जाने के बाद पुनर्जन्म नहीं होता‚ इत्यादि जितनी बातें इस अध्याय में बतलायी गयी हैं‚ उन सबको भली-भाँति समझ लेना ही उसे तत्त्व से जानना है।
  22. हां ‘वेदʼ शब्द अंगों सहित चारों वेदों का और उनके अनुकूल समस्त शास्त्रों का, ‘यज्ञ‘ शास्त्रविहित पूजन, हवन आदि सब प्रकार के यज्ञों का, ‘तप‘, व्रत, उपवास, इन्द्रियसंयम, स्वधर्मपालन आदि सभी प्रकार के शास्त्रविहित तपों का और ‘दान‘ अन्नदान, विद्यादान, क्षेत्रदान आदि सब प्रकार के शास्त्रविहित दान एवं परोपकार का वाचक है। श्रदा्-भक्तिपूर्वक सकामभाव से वेद-शास्त्रों का स्वाध्याय तथा यद्य, दान और तप आदि शुभ कर्मो का अनुष्ठान करने से जो पुण्यसंचय होता है, उस पुण्य का जो ब्रह्मलोकर्यन्त भिन्न - भिन्न देवलोकों की और वहाँ के भोगों की प्राप्ति रूप फल वेद - शास्त्रों में बतलाया गया है, वही पुण्यफल है एवं जो उन सब लोकों को और उनके भोगों को क्षण भगुंर तथा अनित्य समझकर उनमें आसक्त न होना और उनसे सर्वथा उपरत हो जाना है, यही (श्रीमद्रगवद्रीतायां नवमोऽध्याय) उनको उल्लाघंन कर जाना है।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः