द्वात्रिंश (32) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 19-22 का हिन्दी अनुवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 8
उस अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात् विलक्षण और सनातन अव्यक्त भाव है, वह परम दिव्य पुरुष सब भूतों के नष्ट होने पर भी नहीं होता।[2] सम्बन्ध- आठवें और दसवें श्लोकों में अधियज्ञ की उपासना का फल परम दिव्य पुरुष की प्राप्ति, तेरहवें श्लोक में परम अक्षर निर्गुण ब्रह्म की उपासना का फल परम गति की प्राप्ति ओर चौदहवें श्लोक में सगुण-साकार भगवान् श्रीकृष्ण की उपासना का फल भगवान् की प्राप्ति बतलाया गया है। इससे तीनों में किसी प्रकार के भेद का भ्रम न हो जाय, इस उद्देश्य से अब सबकी एकता का प्रतिपादन करते हुए उनकी प्राप्ति के बाद पुनर्जन्म का अभाव दिखलाते हैं- जो अव्यक्त ‘अक्षर’[3] इस नाम से कहा गया है, उसी अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परम गति[4] कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते, वह मेरा परम धाम है।[5] हे पार्थ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्वभूत हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह सब जगत् परिपूर्ण हैं,[6] वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्यभक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है।[7] सम्बन्ध- अर्जुन के सातवें प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने अन्तकाल में किस प्रकार मनुष्य परमात्मा को प्राप्त होता है, यह बात भलीभाँति समझायी। प्रसंगवश यह बात भी कही कि भगवत्प्राप्ति न होने पर ब्रह्मलोक तक पहुँचकर भी जीव आवागमन के चक्कर से नहीं छूटता; परंतु वहाँ यह बात नहीं कही गयी कि जो वापस न लौटने वाले स्थान को प्राप्त होते हैं, वे किस रास्ते से और कैसे जाते हैं तथा इसी प्रकार जो वापस लौटने वाले स्थानों का प्राप्त होते हैं, वे किस रास्ते से जाते हैं। अत: उन दोनों मार्गों का वर्णन करने के लिये भगवान् प्रस्तावना करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अव्यक्त में लीन हो जाने से भूतप्राणी न तो मुक्त होते हैं और न उसकी भिन्न सत्ता ही मिटती है। इसीलिये ब्रह्मा की रात्रि का समय समाप्त होते ही वे सब पुन: अपने-अपने गुण और कर्मों के अनुसार यथायोग्य स्थूल शरीरों को प्राप्त करके प्रकट हो जाते हैं।
इस प्रकार यह भूतसमुदाय अनादि काल से उत्पन्न हो-होकर लीन होता चला आ रहा है। ब्रह्मा की आयु के सौ वर्ष पूर्ण होने पर जब ब्रह्मा का शरीर भी मूल प्रकृति मे लीन हो जाता है और उसके साथ-साथ सब भूतसमुदाय भी उसी में लीन हो जाते हैं (गीता 9/7), तब भी इनके इस चक्कर का अन्त नहीं आता। ये उसके बाद भी उसी तरह पुन: पुन: उत्पन्न होते रहते हैं (गीता 9/8)। जब तक प्राणी को परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक वह बार-बार इसी प्रकार उत्पन्न हो-होकर प्रकृति में लीन होता रहेगा। यहाँ ब्रह्मा के दिन-रात का प्रसंग होने से यही समझना चाहिये कि ब्रह्मा ही समस्त प्राणियों को उनके गुण-कर्मानुसार शरीरों से सम्बद्ध करके बार-बार उत्पन्न करते हैं। महाप्रलय के बाद जिस समय ब्रह्मा की उत्पत्ति नहीं होती, उस समय तो सृष्टि की रचना स्वयं भगवान् करते हैं; परंतु ब्रह्मा के उत्पन्न होने के बाद सबकी रचना ब्रह्मा ही करते हैं। गीता के नवें अध्याय में (श्लोक 7 से 10) और चौदहवें अध्याय में (श्लोक 3,4) जो सृष्टि रचना का प्रसंग है, वह महाप्रलय के बाद महासर्ग के आदि काल का है और यहाँ का वर्णन ब्रह्मा की रात्रि के (प्रलय के) बाद ब्रह्मा के दिन के (सर्ग के) आरम्भ-समय का हैं। - ↑ अठारहवें श्लोक में जिस ‘अव्यक्त’ में समस्त व्यक्तियों (भूत-प्राणियों) का लय होना बतलाया गया है, उसी का वाचक यहाँ ‘अव्यक्तात्’ पद है; उस पूर्वोक्त ‘अव्यक्त’ से इस ‘अव्यक्त’ को ‘पर’ और ‘अन्य’ बतलाकर उससे इसकी अत्यन्त श्रेष्ठता और विलक्षणता सिद्ध की गयी है। अभिप्राय यह है कि दोनों का स्वरूप ‘अव्यक्त’ होने पर भी दोनों एक जाति की वस्तु नहीं हैं। वह पहला ‘अव्यक्त’ जड़, नाशवान् और ज्ञेय है; परंतु यह दूसरा चेतन, अविनाशी और ज्ञाता है। साथ ही यह उसका स्वामी, संचालक और अधिष्ठाता है; अतएव यह उससे अत्यन्त श्रेष्ठ और विलक्षण है। अनादि और अनन्त होने के कारण इसे ‘सनातन’ कहा गया है। इसलिये यह सबके नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।
- ↑ जिसे पूर्वश्लोक में ‘सनातन अव्यक्तभाव’ के नाम से और आठवें तथा दसवें श्लोकों में ‘परम दिव्य पुरुष’ के नाम से कहा है, उसी अधियज्ञ पुरुष को यहाँ ‘अव्यक्त’ और ‘अक्षर’ कहा है।
- ↑ जो मुक्ति सर्वोत्तम प्राप्य वस्तु है, जिसे प्राप्त कर लेने के बाद और कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता, उसका नाम ‘परम गति’ है। इसलिये जिस निर्गुण-निराकार परमात्मा को ‘परम अक्षर’ और ‘ब्रह्म’ कहते है, उसी सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को ‘परम गति’ कहा गया है। (गीता 8/13)
- ↑ अभिप्राय यह है कि भगवान् के नित्य धाम की, भगवद्भाव की और भगवान् के स्वरूप की प्राप्ति मे कोई वास्तविक भेद नहीं है। इसी तरह अव्यक्त अक्षर की प्राप्ति में तथा परमगति की प्राप्ति में और भगवान् की प्राप्ति में भी वस्तुत: कोई भेद नहीं है। साधना के भेद से साधकों की दृष्टि में फल का भेद हैं। इसी कारण उसका भिन्न-भिन्न नामों से वर्णन किया गया हैं। यथार्थ में वस्तुगत कुछ भी भेद न होने के कारण यहाँ उन सबकी एकता दिखलायी गयी है।
- ↑ जैसे वायु, तेज, जल और पृथ्वी- चारों भूत आकाश के अन्तर्गत हैं, आकाश ही उनका एकमात्र कारण और आधार है, उसी प्रकार समस्त चराचर प्राणी अर्थात् सारा जगत् परमेश्वर के ही अन्तर्गत है, परमेश्वर से ही उत्पन्न है और परमेश्वर के ही आधार पर स्थित है तथा जिस प्रकार वायु, तेज, जल, पृथ्वी- इन सबमें आकाश व्याप्त है, उसी प्रकार यह सारा जगत् अव्यक्त परमेश्वर से व्याप्त है, यही बात गीता के नवम् अध्याय के चौथे, पांचवें और छठे श्लोकों में विस्तारपूर्वक दिखलायी गयी है।
- ↑ सर्वाधार, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान्, परम पुरुष परमेश्वर में ही सब कुछ समर्पण करके उनके विधान में सदा परम संतुष्ट रहना और सब प्रकार से अनन्य प्रेमपूर्वक नित्य-निरन्तर उनका स्मरण करना ही अनन्य भक्ति है। इस अनन्य भक्ति के द्वारा साधक अपने उपास्यदेव परमेश्वर के गुण, स्वभाव और तत्त्व को भलीभाँति जानकर उनमें तन्मय हो जाता है और शीघ्र ही उनका साक्षात्कार करके कृतकृत्य हो जाता है। यही साधक का उन परमेश्वर को प्राप्त कर लेना है।
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