महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 31 श्लोक 14-20

एकत्रिंश (31) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 14-20 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 7


क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परंतु जो मनुष्य केवल मुझको ही निरन्तर भेजते हैं, वे इस माया का उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं।[1] सम्बन्ध- भगवान् ने माया की दुस्तरता दिखाकर अपने भजन को उससे तरने को उपाय बतलाया। इस पर यह प्रश्न उठता है कि जब ऐसी बात है, तब सब लोग निरन्तर आपका भजन क्यों नहीं करते; इस पर भगवान् कहते हैं। माया के द्वारा जिनका ज्ञान हारा जा चुका है ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किये हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते। किन्तु हे भरतवंषियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने-वाले अर्थार्थी,[2] आर्त्त,[3] जिज्ञासु,[4] और ज्ञानी[5]

ऐसे चार प्रकार के भक्त मुझको भजते हैं। उनमें नित्य मुझमें एकी भाव से स्थित अनन्य प्रेम भक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है,[6] क्योंकि मुझको तत्त्व से जानने-वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।[7] सम्बन्ध- भगवान् ने ज्ञानी भक्त को सबसे श्रेष्ठ और अत्यन्त प्रिय बतलाया। इस पर यह शंका हो सकती है कि क्या दूसरे भक्त श्रेष्ठ और प्रिय नहीं हैं; इस पर भगवान् कहते हैं- ये सभी उदार हैं,[8] परंतु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है[9]- ऐसा मेरा मत है; क्योंकि सह मद्गत मन-बुद्धि वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है। बहुत जन्मों के अन्त[10] के जन्म में तत्त्वज्ञान[11] को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है- इस प्रकार मुझको भजता है;[12] वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है। उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हारा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर[13] उस-उस नियम को धारण करके अनय देवताओं को भेजते हैं अर्थात पूजते है।[14]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जो एकमात्र भगवान को ही अपना परम आश्रय, परम गति, परम प्रिय और परम प्राप्य मानते हैं तथा सब कुछ भगवान् का या भगवान् के ही लिये है- ऐसा समझकर जो शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, गृह, कीर्ति आदि में ममत्व और आसक्ति का त्याग करके उन सब को भगवान् की ही पूजा की सामग्री बनाकर तथा भगवान् के रचे हुए विधान में सदा संतुष्ट रहकर, भगवान की आज्ञा के पालन में तत्पर और भगवान् के स्मरणपरायण होकर अपने को सब प्रकार से निरनतर भगवान् में ही लगाये रखते हैं, वे शरणागत भक्त माया से तरते हैं।
  2. स्त्री, पुत्र, धन, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्ग-सुख आदि इस लोक और परलोक के भोगों में से, जिसके मन में एक की या बहुतों की कामना है, परंतु कामना पूर्ति के लिये जो केवल भगवान पर ही निर्भर करता है और इसके लिये जो श्रद्धा और विश्वास के साथ भगवान् का भजन करता है, वह अर्थार्थी भक्त है। सुग्रीव-विभीषण आदि भक्त अर्थार्थी माने जाते हैं।, इनमें प्रधानता से ध्रुव का नाम लिया जाता है।
  3. जो शारीरिक या मानसिक संताप, विपत्ति, शत्रुभय, रोग, अपमान, चोर, डाकू और आततायियों के अथवा हिंस्र जानवरों के आक्रमण आदि से घबराकर उनसे छूटने के लिये पूर्ण विश्रास के साथ हृदय की अडिग श्रद्धा से भगवान् का भजन करता है। वह आर्त भक्त है। आर्त गजराज , जरासंध के बंदी राजागण आदि बहुत-से माने जाते हैं; परंतु सती द्रौपदी नाम मुख्यतया लिया जाता है।
  4. धन, स्त्री, पुत्र, गृह आदि वस्तुओं की और रोग-संकटादि की परवा न करके एकमात्र परमात्मा को तत्त्व से जानने- की इच्छा से ही जो एकनिष्ठ होकर भगवान् की भक्ति करता है, उस कल्याणकामी भक्त को जिज्ञासु कहते हैं। जिज्ञासु भक्तों में परीक्षित् आदि अनेकों के नाम हैं, परंतु उद्धव जी का नाम विशेष प्रसिद्ध है।
  5. जो परमात्मा को प्राप्त कर चुके हैं जिनकी दृष्टि में एक परमात्मा ही रह गये हैं- परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं और इस प्रकार परमात्मा को प्राप्त कर लेने से जिनकी समस्त कामनाएं निःशेष रूप से समाप्त हो चुकी है तथा ऐसी स्थिति में जो सहज भाव से ही परमात्मा का भजन करते हैं। वे ज्ञानी हैं। गीता के नवें अध्याय के तेरहवें और चौदहवें श्लोकों में तथा दसवें अध्याय के तीसरे और पंद्रहवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में जिनका वर्णन है, वे निष्काम अननय प्रेमी साधक भक्त भी ज्ञानी भक्तों के अन्तर्गत हैं। ज्ञानियो में शुकदेव जी, सनकादि, नारदजी और भीष्म जी आदि प्रसिद्ध हैं। बालक प्रह्लाद भी ज्ञानी भक्त माने जाते हैं।
  6. संसार, शरीर और अपने-आपको सर्वथा भुलकर जो अनन्यभाव से नित्य-निरन्तर केवल भगवान् में स्थित है, उसे नित्ययुक्त कहते हैं। और जो भगवान् में ही हेतुरहित और अविरल प्रेम करता है एकभक्ति कहते हैं; ऐसा भगवान् के तत्त्व को जानने वाला ज्ञानी भक्त अन्य सबसे उत्तम है।
  7. जिन्होंने इस लोक और परलोक के अत्यन्त प्रिय, सुखप्रद तथा सांसारिक मनुष्यों की दृष्टि से दुर्लभ-से-भगवान् का कितना महत्त्व है और उनको भगवान् कितने प्यारे हैं- दूसरे किसी के द्वारा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसीलिये भगवान् कहते हैं कि ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और जिनको भगवान् अतिशय प्रिय हैं, वे भगवान् को तो अतिशय प्रिय होंगे ही।
  8. वे सब प्रकार के भक्त इस बात का भलीभाँति निश्चय कर चुके हैं कि भगवान् हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वेश्वर हैं, परम दयालु हैं और परम सुहृद हैं; हमारी आशा और आकांक्षाओं की पूर्ति मात्र उन्हीं से हो सकती है। ऐसा मान और जानकर, वे अन्य सब प्रकार के आश्रयों को त्याग करके अपने जीवन को भगवान् के ही भजन-स्मरण, पूजन और सेवा आदि में लगाये रखते है। उनकी एक भी चेष्टा ऐसी नहीं होती, जो भगवान् के विश्वास में जरा भी त्रुटि लाने वाली हो। इसलिये सबको 'उदार' कहा गया है।
  9. इस कथन से भगवान् यह भाव दिखला रहे हैं कि ज्ञानी भक्त में और मुझमें कुछ भी अन्तर नहीं है। भक्त है सो मैं हू मैं हूँ और मैं हू सो भक्त है।
  10. जिस जन्म में मनुष्य भगवान् का ज्ञानी भक्त बन जाता है, वही उसके बहुत-से जन्मों के अन्त का जन्म है; क्योकि भगवान् को इस प्रकार तत्त्व से जान लेने पश्चात उसका पुन; जन्म नहीं होता; वही उसका अन्तिम जन्म होता है।
  11. भगवान ने इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में विज्ञानसहित जिस ज्ञान के जानने की प्रशंसा की थी, जिस प्रेमी भक्त ने उस विज्ञानसहित ज्ञान को प्राप्त कर लिया है तथा तीसरे श्लोक में जिसके लिये कहा है कि कोई एक ही मुझे तत्त्व से जानता है, उसी के लिये यहाँ ज्ञानवान् शब्द का प्रयोग हुआ है। इसीलिये अठारहवें श्लोक में भगवान् ने उसको अपना स्वरूप बतलाया है।
  12. सम्पूर्ण जगत् भगवान् वासुदेव का स्वरूप है, वासुदेव के सिवा और कुछ है ही नहीं, इस तत्त्व का प्रत्यक्ष और अटल अनुभव हो जाना और उसी में नित्य स्थित रहना- यही सब कुछ वासुदेव हैं, इस प्रकार से भगवान् का भजन करना है। जन्म-जन्मान्तर में किये हुए कर्मों से संस्कारों का संचय होता है और उस संस्कार समूह से जो प्रकृति बनती है, उसे स्वभाव कहा जाता है। स्वभाव प्रत्येक जीव का भिन्न होता है उस स्वभाव के अनुसार जो अन्तःकरण में भिन्न-भिन्न देवताओं का पूजन करने की भिन्न-भिन्न इच्छा उत्पन्न होती है, उसी को उससे प्रेरित होना कहते है।
  13. जन्म-जन्मान्तर में किये हुए कर्मों से संस्कारों का संचय होता है और उस संस्कार समूह से जो प्रकृति बनती है, उसे स्वभाव कहा जाता है। स्वभाव प्रत्येक जीव का भिन्न होता है उस स्वभाव के अनुसार जो अन्तःकरण में भिन्न-भिन्न देवताओं का पूजन करने की भिन्न-भिन्न इच्छा उत्पन्न होती है, उसी को उससे प्रेरित होना कहते है।
  14. सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, इनद्र, मरूत्, यमराज और वरुण आदि शास्त्रोक्त देवताओं को भगवान् से भित्र समझकर, जिस देवता की, जिस उद्देश्य से की जाने वाली उपासना में जप, ध्यान, पूजन, नमस्कार, न्यास, हवन, व्रत, उपवास आदि के जो-जो भिन्न-भिन्न नियम है, उन-उन नियमों को धारण करके बड़ी सावधानी के साथ उनका भलीभान्ति पालन करते हुए उन देवताओं की आराधना करना ही उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भेजना है।

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