महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 26 श्लोक 61-69

षड्विंश (26) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवतद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 61-69 का हिन्दी अनुवाद
श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 2

इसलिये साधक को चाहिये कि वह उन सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्‍यान में बैठे; क्‍योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती है उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है। सम्‍बन्‍ध – उपर्युक्त प्रकार से मनसहित इन्द्रियों को वश में न करने से और भगवत्‍परायण न होने से क्‍या हानि है ? यह बात अब दो श्‍लोकों में बतलायी जाती हैं – विषयों का चिन्‍तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्‍पन्‍न होती है और कामनायें विघ्‍न पड़ने से क्रोध उत्‍पन्‍न होता है। क्रोध से अत्‍यन्‍त मूढभाव उत्‍पन्‍न हो जाता है, मूढभाव से स्‍मृति में भ्रम हो जाता है, स्‍मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है। सम्‍बन्‍ध – इस प्रकार मन सहित इन्द्रियों को वश में न करने वाले मनुष्‍य के पतन का क्रम बतलाकर अब भगवान् स्थितप्रज्ञ योगी कैसे चलता है इस चौथे प्रश्‍न का उत्तर आरम्‍भ करते हुए पहले दो श्‍लोकों में जिसके मन और इन्द्रियाँ वश में होते हैं, ऐसे साधक द्वारा विषयों में विचरण किये जाने का प्रकार और उसका फल बतलाते हैं – परंतु अपने अधीन किये हुए अन्‍त:करण वाला साधक अपने वश में की हुई रागद्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा[1] विषयों में विचरण करता हुआ[2] अन्‍त:करण की प्रसन्‍नता को[3] प्राप्‍त होता है। अन्‍त:करण की प्रसन्‍नता होने पर इसके सम्‍पूर्ण दु:खों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्‍न चित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्‍मा में ही भली-भाँति स्थिर हो जाती है। सम्‍बन्‍ध – इस प्रकार मन और इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त भाव से इन्द्रियों द्वारा व्‍यवहार करने वाले साधक को सुख, शान्ति और स्थ्तिप्रज्ञ अवस्‍था प्राप्त होने की बात कहकर अब दो श्‍लोकों द्वारा इससे विपरित जिसके मन इन्द्रिय जीते हुए नहीं हैं, ऐसे विषयासक्त मनुष्‍य में सुख शान्ति का अभाव दिखलाकर विषयों के संग से उसकी बुद्धि के विचलित हो जाने का प्रकार बतलाते हैं– न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्‍य के अन्‍त:करण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्‍य को शान्ति नहीं मिलती[4] और शान्तिरहित मनुष्‍य को सुख कैसे मिल सकता है? क्‍योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है।[5] इसीलिये हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं[6] उसी की बुद्धि स्थिर है। सम्‍पूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रि के समान है, उस नित्‍य ज्ञानस्‍वरूप परमानन्‍द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है[7] और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्‍मा के तत्त्‍व को जानने वाले मुनि के लिये वह रात्रि के समान है।[8]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उन्सठवें श्‍लोक में तो रागद्वेष का अत्‍यन्‍त अभाव बताया गया है और वहाँ राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषय से वन की बात कहकर राग-द्वेष के सर्वथा अभाव का साधना बतायी गयी है। तीसरे अध्‍याय के चालीसवें श्‍लोक में इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि – इन तीनों को ही काम का अधिष्ठान बताया है। इससे यह सिद्ध होता है कि इन्द्रियों में राग-द्वेष न रहने पर भी मन या बुद्धि में सूक्ष्‍म रूप से राग-द्वेष रह सकते हैं; परंतु उन्सठवें श्‍लोक में अस्‍य पद का प्रयोग करके स्थिर बुद्धि पुरुष में राग-द्वेष का सर्वथा अभाव बताया गया है। वहाँ केवल इन्द्रियों में ही राग-द्वेष के अभाव की बात नहीं है।
  2. यद्यपि बाह्य विषयों का त्‍याग भी भगवान् की प्राप्ति में सहायक है, परंतु जब तक इन्द्रियों का सयंम और राग-द्वेष का त्‍याग न हो, तब तक केवल बाह्य विषयों के त्‍याग से विषयों की पूर्ण निवृत्ति नहीं हो सकती और न कोई सिद्धि ही प्राप्त होती है तथा ऐसी बात भी नहीं है कि बाह्य विषय का त्‍याग किये बिना इन्द्रिय संयम हो ही नहीं सकता; क्‍योंकि भगवान् की पूजा, सेवा, जप और विवेक वैराग्‍य आदि दूसरे उपायों से सहज ही इन्द्रिय संयम हो सकता है। इसी प्रकार इन्द्रिय संयम भी भगवत प्राप्ति में सहायक है; परंतु इन्द्रियों के राग-द्वेष का त्‍याग हुए बिना केवल इन्द्रिय संयम से विषयों की पूर्णतया निवृत्ति होकर वास्‍तव में परमात्‍मा की प्राप्ति नहीं होती और ऐसी बात भी नहीं है कि बाह्य विषय त्‍याग तथा इन्द्रिय संयम हुए बिना इन्द्रियों के राग-द्वेष का त्‍याग हो ही न सकता हो। सत्‍संग, स्‍वाध्‍याय और विचार द्वारा सांसारिक भोगों की अनित्‍यता का भान होने से तथा ईश्वर कृपा और भजन ध्‍यान आदि से जिसकी इन्द्रियों के राग-द्वेष का नाश हो गया है, उसके लिये बाह्य विषयों का त्‍याग और इन्द्रिय संयम अनायास अपने आप हो जाता है। जिसका इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष नहीं हैं, वह पुरुष यदि बाह्य रूप से विषयों का त्‍याग न करे तो विषयों में विचरण करता हुआ ही परमात्‍मा को प्राप्त कर सकता है; इसलिये इन्द्रियों का राग-द्वेष से रहित होना ही मुख्‍य है।
  3. वश में की हुई इन्द्रियों द्वारा राग द्वेष के व्‍यवहार करने से साधक का अन्‍त:करण शुद्ध और स्‍वच्‍छ हो जाता है, इस कारण उसमें आध्‍यात्मिक सुख और शान्ति का अनुभव होता है (गीता १८।३७); उस सुख और शान्ति को प्रसन्‍नता कहते हैं।
  4. इससे यह दिखलाया गया है कि परम आनन्‍द और शान्ति के समुद्र परमात्‍मा का चिन्‍तन न होने के कारण अयुक्त मनुष्‍य का चित्त निरन्‍तर विक्षिंत रहता हैं; उसमें राग द्वेष, काम क्रोध और लोभ ईर्ष्‍या आदि के कारण हर समय जलन और व्‍याकुलता बनी रहती है। अतएव उसको शान्ति नहीं मिलती।
  5. यहाँ नौका के स्‍थान में वृद्धि है, वायु के स्‍थान में जिसके साथ मन रहता है, वह इन्द्रिय है, जलाशय के स्‍थान में संसार रूप समुद्र है और जल के स्‍थान में शब्‍दादि समस्‍त विषयों का समुदाय है। जल में अपने गन्‍तव्‍य स्‍थान की ओर जाती हुई नौका को प्रबल वायु दो प्रकार से विचलित करती है – या तो उसे पथभ्रष्ट करके जल की भीषण तरंगो में भटकाती है या अगाध जल में डुबो देती है; इसी प्रकार जिसके मन इन्द्रिय वश में नहीं हैं, ऐसा मनुष्‍य यदि अपनी बुद्धि को परमात्‍मा के स्‍वरूप में निश्चल करना चाहता है तो भी उसकी इन्द्रियाँ उसके मन को आकर्षित करके उसकी बुद्धि को दो प्रकार से विचलित करती है। इन्द्रियों का बुद्धि रूप नौका को परमात्‍मा से हटाकर नाना प्रकार के भोगों की प्राप्ति का उपाय सोचने में लगा देना, उसे भीषण तरंगों में भटकाना है और पापों में प्रवृत्त करके उसका अध:पतन करा देना, उसे डुबो देना है; परंतु जिसके मन और इन्द्रिय वश में रहते हैं उसकी बुद्धि को वे विचलित नहीं करते, वरं बुद्धि रूप नौका को परमात्‍मा के पास पहुँचाने में सहायता करते हैं। चौंसठवें और पैंसठवें श्‍लोक में यही बात कही गयी है।
  6. श्रोत्रादि समस्‍त इन्द्रियों के जितने भी शब्‍दादि विषय हैं, उन विषयों में बिना किसी रुकावट के प्रवृत्त हो जाना इन्द्रियों का स्‍वभाव है; क्‍योंकि अनादिकाल से जीव इन इन्द्रियों के द्वारा विषयों को भोगता आया है, इस कारण इन्द्रियों की उनमें आसक्ति हो गयी है। इन्द्रियों की इस स्‍वभाविक प्रवृत्ति को सर्वथा रोक देना, उनके विषयलोलुप स्‍वभाव को परिवर्तित कर देना, उनमें विषयासक्ति का अभाव कर देना और मन बुद्धि को विचलित करने की शक्ति न रहने देना – यही उनको उनके विषयों से सर्वथा निगृहीत कर लेना है। इस प्रकार जिसकी इन्द्रियाँ वश में हुई होती हैं, वह पुरुष जब ध्‍यानकाल में इन्द्रियों की क्रियाओं का त्‍याग कर देता है, उस समय उसकी कोई भी इन्द्रिय न तो किसी भी विषय को ग्रहण कर सकती है और न अपनी सूक्ष्‍म वृत्तियों द्वारा मन में विक्षेप ही उत्‍पन्‍न कर सकती है। उस समय वे मन में तद्रूप सी हो जाती है और व्‍युत्‍थानकाल में जब वह देखना सुनना आदि इन्द्रियों की क्रिया करता रहता है, उस समय वे बिना आसक्ति के नियमित रूप से यथायोग्‍य शब्‍दादि विषयों का ग्रहण करती हैं। किसी भी विषय में उसके मन को आकर्षित नहीं कर सकती वरं मन का अनुसरण करती हैं। स्थितप्रज्ञ पुरुष लोकसंग्रह के लिये जिस इन्द्रिय के द्वारा जितने समय तक जिस शास्‍त्र सम्‍मत विषय का ग्रहण करना उचित समझता है, वही इन्द्रिय उतने ही समय तक उसी विषय का अनासक्त भाव से ग्रहण करती है; उसके विपरित कोई भी इन्द्रिय किसी भी विषय को ग्रहण नहीं कर सकती। इस प्रकार जो इन्द्रियों पर पूर्ण आधिपत्‍य कर लेना है, उनकी स्‍वतन्‍त्रता को सर्वथा नष्ट करके उनको अपने अनुकूल बना लेना है – यही इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से निगृहित कर लेना है।
  7. जैसे प्रकाश से पूर्ण दिन को उल्‍लू अपने नेत्रदोष से अन्‍धकारमय देखता है, वैसे ही अनादि सिद्ध अज्ञान क परदेसे अन्‍त:करण रूप नेत्रों की विवेक विज्ञान रूप प्रकाशन शक्ति के आवृत रहने के कारण अविवेकी मनुष्‍य स्‍वयं प्रकाश नित्‍यबोध परमानन्‍दमय परमात्‍मा को नहीं देख पाते। उस परमात्‍मा की प्राप्ति रूप सूर्य के प्रकाशित होने से जो परम शान्ति और नित्‍य आनन्‍द का प्रत्‍यक्ष अनुभव होता है, वह वास्‍तव में दिन की भाँति प्रकाशमय है, तो भी परमात्‍मा के गुण, प्रभाव, रहस्‍य और तत्त्‍व को न जानने वाले अज्ञानियों के लिये रात्रि के समान है। उसी में स्थितप्रज्ञ पुरुष का जो उस सच्चिदानन्दधन परमात्‍मा के स्‍वरूप को प्रत्‍यक्ष करके निरन्‍तर स्थिर रहना है, यही उसका उस सम्‍पूर्ण प्राणियों की रात्रि में जागना है।
  8. जैसे स्‍वप्‍न से जगे हुए मनुष्‍य का स्‍वप्‍न के जगत् से कुछ भी सम्‍बन्‍ध नहीं रहता, वैसे ही परमात्‍मा तत्त्‍व को जानने वाले ज्ञानी के अनुभव में एक सच्चिदानन्‍दधन परमात्‍मा से भिन्‍न किसी भी वस्‍तु की सत्ता नहीं रहती। वह ज्ञानी इस दृश्‍य जगत् के स्‍थान में इसे अधिष्ठान रूप परमात्‍म तत्त्‍व को ही देखता है, अतएव उसके लिये समस्‍त सांसारिक भोग और विषयानन्‍द रात्रि के समान है।

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