त्रयोविंश (23) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवतद्गीता पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 70-72 का हिन्दी अनुवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं,[1] वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं। सम्बन्ध– स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है? अर्जुन का यह चौथा प्रश्न परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के विषय में ही था; किंतु यह प्रश्न आचरण विषयक होने के कारण उसके उत्तर में चौंसठवें श्लोक से यहाँ तक किस प्रकार आचरण करने वाला मनुष्य शीघ्र स्थितप्रज्ञ बन सकता है, कौन नहीं बन सकता और जब मनुष्य स्थितप्रज्ञ हो जाता है उस समय उसकी कैसी स्थिती होती है- ये सब बातें बतलायी गयीं। अब उस चौथे प्रश्न का स्पष्ट उत्तर देते हुए स्थितप्रज्ञ पुरुष के आचरण का प्रकार बतलाते हैं- जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है,[2] वही शान्ति को प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्ति को प्राप्त है। सम्बन्ध– इस प्रकार अर्जुन के चारों प्रश्नों का उत्तर देने के अनन्तर अब स्थितप्रज्ञ पुरुष की स्थिति का महत्त्व बतलाते हुए इस अध्याय का उपसंहार करते हैं- हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है; इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता[3] और अन्तकाल में भी इस ब्राह्य स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्त्र रूप श्रीमद्भवद्गीतोपनिषद, श्री कृष्णार्जुन संवाद में सांख्ययोग नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ।।2।। भीष्मपर्व में छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ किसी भी जड़ वस्तु की उपमा देकर स्थितप्रज्ञ पुरुष की वास्तविक स्थिति का पूर्णतया वर्णन करना सम्भव नहीं है, तथापि उपमा द्वारा उस स्थिति के किसी अंश का लक्ष्य कराया जा सकता है। अत: समुद्र की उपमा से यह भाव समझना चाहिये कि जिस प्रकार समुद्र आपूर्यमाण यानी अथाह जल से परिपूर्ण हो रहा है, वैसे ही स्थितप्रज्ञ अनन्त आनन्द से परिपूर्ण है; जैसे समुद्र को जल की आवश्यकता नहीं है, वैसे ही स्थितप्रज्ञ पुरुष को भी किसी सांसारिक सुख भोग की तनिक मात्र भी आवश्यकता नहीं है, वह सर्वथा आप्तकाम है। जिस प्रकार समुद्र की स्थिती अचल है, भारी से भारी आँधी तुफान आने पर या नाना प्रकार से नदियों के जलप्रवाह उसमें प्रविष्ट होने पर भी वह अपनी स्थिति से विचलित नहीं होता, मर्यादा का त्याग नहीं करता, उसी प्रकार परमात्मा के स्वरूप में स्थित योगी की स्थ्िाति भी सर्वथा अचल होती है, बड़े से बड़े सांसारिक सुख दु:खों का संयोग वियोग होने पर भी उसकी स्थिति में जरा भी अन्तर नहीं पड़ता; वह सच्चिदानन्दघन परमात्मा में नित्य निरन्तर अटल और एकरस स्थित रहता है।
- ↑ मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित शरीर में जो साधारण अज्ञानी मनुष्यों का आत्माभिमान रहता है, जिसके कारण वे शरीर को ही अपना स्वरूप मानते हैं, अपने शरीर से भिन्न नहीं समझते, उस देहाभिमान का नाम अहंकार है; उससे सर्वथा रहित हो जाना ही अहंकाररहित हो जाना है। मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित शरीर को, उसके साथ सम्बन्ध रखने वाले स्त्री, पुत्र, भाई और बन्धु बान्धवों को तथा गृह, धन, ऐश्वर्य आदि पदार्थों को, अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों को और उन कर्मों के फलरूप समस्त भोगों को साधारण मनुष्य अपना समझते हैं; इसी भाव का नाम ममता है और इससे सर्वथा रहित हो जाना ही ममता रहित हो जाना है। किसी अनुकूल वस्तु का अभाव होने पर मन में ऐसा भाच होता है कि अमुक वस्तु की आवश्यकता है, उसके बिना काम न चलेगा, इस अपेक्षा का नाम स्पृहा है और इससे सर्वथा रहित हो जाना ही स्पृहारहित होना है। अहंकार, ममता, और स्पृहा– इन तीनों से उपर्युक्त प्रकार से रहित होकर अपने वर्ण, आश्रम, प्रकृति और परिस्थिति के अनुसार केवल लोकसंग्रह के लिये इन्द्रियों के विषयों में विचरना अर्थात् देखना सुनना, खाना पीना, सोना जागना आदि समस्त शास्त्रविहित चेष्टा करना ही समस्त कामनाओं का त्याग करके अहंकार, ममता और स्पृहा से रहित होकर विचरना है।
- ↑ अर्जुन के पूछने पर पचपनवें श्लोक से यहाँ तक स्थितप्रज्ञ पुरुष की जिस स्थिति का जगह-जगह वर्णन किया गया है, उसमें सर्वथा निर्विकार और निश्चलभाव से नित्य निरन्तर निमग्न रहना ही उस स्थिति को प्राप्त होना है। ईश्वर क्या है? संसार क्या है? माया क्या है? इनका परस्पर सम्बन्ध क्या है? मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? मेरा क्या कर्तव्य है ? और क्या कर रहा हूँ?– आदि विषयों का यथार्थ ज्ञान न होना ही मोह है, यह मोह जीव को अनादिकाल से है, इसी कारण यह इस संसारचक्र में घूम रहा है। उपर्युक्त ब्राह्यी स्थिति को प्राप्त पुरुष का यह अनादि सिद्ध मोह समूल नष्ट हो जाता है, अतएव फिर उसकी उत्पत्ति नहीं होती।
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