एकविंशत्यधिकशततम (121) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: एकविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 43-57 का हिन्दी अनुवाद
राजन! तुम क्रोध छोड़कर कुंतीकुमारों के साथ संधि स्थापित कर लो। अर्जुन ने आज तक जो कुछ किया है, उतना ही बहुत है। मुझ भीष्म के जीवन का अंत होने से (तुम्हारे वैर का भी अंत हो जाय) तुम लोगों में प्रेम-संबंध स्थापित हो और जो लोग मरने से बचे हैं, वे अच्छी तरह जीवित रहें। इसके लिये तुम प्रसन्न हो जाओ। तुम पाण्डवों का आधा राज्य दे दो। धर्मराज युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ चले जायं। कौरवराज! ऐसा करने से तुम राजाओं में मित्रद्रोही और नीच नहीं कहलाओगे तथा तुम्हें पापपूर्ण अपयश नहीं प्राप्त होगा। राजन! मेरे जीवन का अंत होने से प्रजाओं में शांति हो जाय। सब राजा प्रसन्नतापूर्वक एक दूसरे से मिलें। पिता पुत्र से, भानजा मामा से और भाई-भाई से मिले। दुर्योधन! यदि तुम मोहवश अपनी मूर्खता के कारण मेरे इस समयोचित वचन को नहीं मानोगे तो अंत में पछताओगे और इस युद्ध में ही तुम सब लोगों का अंत हो जायगा। यह मैं तुमसे सच्ची बात कह रहा हूं।' गंगानंदन भीष्म समस्त राजाओं के बीच सौहार्दवश दुर्योधन को यह बात सुनाकर मौन हो गये। बाणों से उनके मर्मस्थल में अत्यंत पीड़ा हो रही थी। उन्होंने उस व्यथा को किसी प्रकार काबू में करके अपने मन को परमात्मा के चिंतन में लगा दिया। संजय कहते हैं- राजन! जैसे मरणासन्न पुरुष को कोई दवा अच्छी नहीं लगती है, उसी प्रकार महात्मा भीष्म का वह धर्म और अर्थ से युक्त परम हितकर और निर्दोष वचन भी आपके पुत्र को पसंद नहीं आया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अंतर्गत भीष्मवध पर्व में दुर्योधन के प्रति भीष्म का कथनविषयक एक सौ इक्कीसवां अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज