महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 106 श्लोक 21-40

षडधिकशततम (106) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: षडधिकशततम अध्याय: श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद


भरतनन्दन! महाराज! हमने वहाँ सैकड़ों और हजारों ऐसे रथ देखे, जिनके धुरे आदि सामान टूट गये थे और पहियों के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। माननीय प्रजानाथ! वरूथोंसहित टूटे हुए रथ, मारे गये रथी, कटे हुए बाण, कवच, पट्टिश, गदा, भिन्दिपाल, तीखे सायक, छिन्न-भिन्न हुए अनुकर्ष, उपासंग, पहिये, कटी हुई बाँह, धनुष, खड्ग, कुण्डलों सहित मस्तक, तलत्राण, अंगलित्राण, गिराये गये ध्वज और अनेक टुकड़ों में कटकर गिरे हुए चाप- इन सबके द्वारा वहाँ की पृथ्वी आच्छादित हो गयी थी। राजन! जिनके सवार मार दिये गये थे, ऐसे हाथी और घोड़े सैकड़ों और हजारों की संख्या में निष्प्राण होकर पड़े थे। पाण्डव वीर बहुत प्रयत्न करने पर भी भीष्म के बाणों से पीड़ित होकर भागते हुए अपने महारथियों को रोक नहीं पा रहे थे। महाराज! महेन्द्र के समान पराक्रमी भीष्म जी के द्वारा मारी जाती हुई उस विशाल सेना में भगदड़ मच गयी थीं। दो आदमी भी एक साथ नहीं भागते थे। पाण्डवों की सेना अचेत सी होकर हाहाकार कर रही थी। उसके रथ, हाथी और घोड़े बाणों से क्षत-विक्षत हो रहे थे। ध्वजाएँ कटकर धराशायी हो गयी थी। उस भीषण मारकाट में दैव से प्रेरित होकर पिता ने पुत्र को, पुत्र ने पिता को और मित्र ने प्यारे मित्र को मार डाला।

पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर दूसरे सैनिक कवच उताकर केश बिखेरे हुए सब और भागते दिखायी देते थे। उस समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की सारी सेना (सिंह से डरी हुई) गौओं के समुदाय की भाँति घबराहट में पड़ गयी थीं। रथ के कूबर उलट-पलट हो गये थे और समस्त सैनिक आर्तनाद कर रहे थे। उस सेना में भगदड़ पड़ी देख यादवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उत्तम रथ को रोककर कुन्तीकुमार अर्जुन से कहा- 'पार्थ! तुम्हें जिस अवसर की अभिलाषा और प्रतीक्षा थी, वह आ पहुँचा। पुरुषसिंह! यदि तुम मोह से मोहित नहीं हो रहे हो तो इन भीष्म पर प्रहार करो। वीर! तात! पूर्वकाल में विराट नगर के भीतर जब सम्पूर्ण राजा एकत्र हुए थे, उनके सामने और संजय के समीप जो तुमने यह कहा था कि मैं युद्ध में, जो मेरा सामना करने आयेंगे, दुर्योधन के उन भीष्म, द्रोण आदि सम्पूर्ण सैनिकों को सगे सम्बधियों सहित मार डालूँगा।

शत्रुदमन कुन्तीनन्दन! अपने उस कथन को सत्य कर दिखाओ। तुम क्षत्रिय धर्म का स्मरण करके सारी चिन्ताएँ छोड़कर युद्ध करो।' भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन ने मुँह नीचे किये तिरछी दृष्टि से देखते हुए अनिच्छुक की भाँति उनसे इस प्रकार कहा- 'प्रभो! अवध्य महापुरुषों का वध करके नरक से भी बढ़कर निन्दनीय राज्य प्राप्त करूँ अथवा वनवास में रहकर कष्ट भोगूँ- इन दोनों में कौन मेरे लिये पुण्यदायक होगा। अच्छा, जहाँ भीष्म हैं, उसी ओर घोड़ों को बढ़ाइये। आज मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। कुरुकुल के वृद्ध पितामह दुर्धर्ष वीर भीष्म को मार गिराऊँगा।' राजन! तब भगवान श्रीकृष्ण ने चाँदी के समान श्वेत वर्ण वाले घोड़ों को उसी ओर हाँका, जहाँ अंशुमाली सूर्य के समान दुर्निरीक्ष्य भीष्म युद्ध कर रहे थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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