महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 17 श्लोक 40-48

सप्तदश (17) अध्याय: द्रोण पर्व (संशप्‍तकवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 40-48 का हिन्दी अनुवाद
  • 'यह सुशर्मा अपने भाइयों के साथ आकर मुझे युद्ध के लिये ललकार रहा है, अत: गणों सहित इस सुशर्मा का वध करने के लिये मुझे आज्ञा देने की कृपा करें'। (40)
  • पुरुषप्रवर! मैं शत्रुओं की यह ललकार नहीं सह सकता। आपसे सच्‍ची प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि इन शत्रुओं को युद्ध में मारा गया ही समझिये'। (41)
  • युधिष्ठिर बोले– तात! द्रोणाचार्य क्‍या करना चाहते हैं, यह तो तुमने अच्‍छी तरह सुन ही लिया होगा। उनका वह संकल्‍प जैसे भी झूठा हो जाये, वही तुम करो। (42)
  • महारथी वीर! आचार्य द्रोण बलवान, शौर्यसम्‍पन्‍न और अस्‍त्रविद्या में निपुण हैं, उन्‍होंने परिश्रम को जीत लिया है तथा वे मुझे पकड़कर दुर्योधन के पास ले जाने की प्रतिज्ञा कर चुके हैं। (43)
  • अर्जुन बोले– राजन्! ये पांचाल राजकुमार सत्‍यजित आज युद्धस्‍थल में आपकी रक्षा करेंगे। इनके जीते-जी आचार्य अपनी इच्‍छा पूरी नहीं कर सकेंगे। (44)
  • प्रभो! यदि पुरुषसिंह सत्‍यजित रणभूमि में वीरगति को प्राप्‍त हो जायें तो आप सब लोगों के साथ होने पर भी किसी तरह युद्धभूमि में न ठहरियेगा। (45)
  • संजय कहते है- राजन! तब राजा युधिष्ठिर ने अर्जुन को जाने की आज्ञा दे दी और उनको हृदय से लगा लिया। प्रेमपूर्वक उन्‍हें बार-बार देखा और आशीर्वाद दिया। (46)
  • तदनन्‍तर बलवान कुन्‍तीकुमार अर्जुन राजा युधिष्ठिर को वहीं छोड़कर त्रिगर्तों की ओर बढ़े, मानो भूखा सिंह अपनी भूख मिटाने के लिये मृगों के झुंड की ओर जा रहा हो। (47)
  • तब दुर्योधन की सेना बड़ी प्रसन्‍नता के साथ अर्जुन के बिना राजा युधिष्ठिर को कैद करने के लिये अत्‍यन्‍त क्रोधपूर्वक प्रयत्‍न करने लगी। (48)
  • तत्‍पश्‍चात दोनों सेनाएँ बड़े वेग से परस्‍पर भिड़ गयी, मानो वर्षा ऋतु में जल से लबालब भरी हुई गंगा और सरयू वेगपूर्वक आपस में मिल रही हों। (49)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत संशप्‍तकवधपर्व में अर्जुन की रणयात्राविषयक सत्रहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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