महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 173 श्लोक 42-58

त्रिसप्तत्यधिकशततम (173) अध्याय: द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: त्रिसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 42-58 का हिन्दी अनुवाद

भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर महाबाहु कमल नयन कुन्तीकुमार ने राक्षस घटोत्कच का आवाहन किया और वह तत्काल उनके सामने प्रकट हो गया। प्रजानाथ! उसने कवच, धनुष, बाण और खड्ग धारण कर रखे थे। वह श्रीकृष्ण और पाण्डु पुत्र धनंजय को प्रणाम करके उस समय भगवान श्रीकृष्ण से बोला- ‘प्रभो! यहा मैं सेवा में उपस्थित हूँ। मुझे आज्ञा दीजिये, क्या करूँ’। तदनन्तर प्रज्वलित मुख और प्रकाशित कुण्डलों वाले मेघ के समान काले हिडिम्बाकुमार घटोत्कच से भगवान श्रीकृष्ण ने हँसते हुए से कहा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- बेटा घटोत्कच! मैं तुमसे जो कुछ कह रहा हूँ, उसे सुनो और समझो। यह तुम्हारे लिये ही पराक्रम दिखाने का अवसर आया है, दूसरे किसी के लिये नहीं। तुम्हारे ये बन्धु संकट के समुद्र में डूब रहे हैं, तुम इनके लिये जहाज बन जाओ। तुम्हारे पास नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हैं और तुम में राक्षसी माया का भी बल है। हिडिम्बानन्दन! देखो, जैसे चरवाहा गायों को हाँकता है, उसी प्रकार युद्ध के मुहाने पर खड़ा हुआ कर्ण पाण्डवों की इस विशाल सेना को खदेड़ रहा है। यह कर्ण महाधनुर्धर, बुद्धिमान और दृढ़तापूर्वक पराक्रम प्रकट करने वाला है। यह पाण्डवों की सेनाओं में जो श्रेष्ठ क्षत्रिय वीर है, उनका विनाश कर रहा है। इसके बाणों की आग से संतप्त हो बाणों की बड़ी भारी वर्षा करने वाले सुदृढ़ धनुर्धर वीर भी युद्धभूमि में ठहर नहीं पाते हैं। देखो, जैसे सिंह से पीड़ित हुए मृग भागते हैं, उसी प्रकार इस आधी रात के समय सूत पुत्र के द्वारा की हुई बाण वर्षा से व्यथित हो ये पांचाल सैनिक भागे जा रहे हैं।

भयंकर पराक्रमी वीर! इस युद्धथल में तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा योद्धा नहीं है, जो इस प्रकार आगे बढ़ने वाले सूत पुत्र कर्ण को रोक सके। महाबाहो! इसलिये तुम अपने पिता, मामा, से तेज, अस्त्रबल में तथा अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप युद्ध में पराक्रम करो।। हिडिम्बाकुमार! मनुष्य इसीलिये पुत्र की इच्छा करते है कि वह किसी प्रकार हमें दुःख से छुड़ायेगा, अतः तुम अपने बन्धु-बान्धवों को उबारो। घटोत्कच! प्रत्येक पिता अपने इसी स्वार्थ के लिये पुत्रो की इच्छा करता है कि वे पुत्र मेरे हितैषी होकर मुझे इस लोक से परलोक में तार देंगे। भीमनन्दन! संग्राम भूमि में युद्ध करते समय सदा तुम्हारा भयंकर बल बढ़ता है और तुम्हारी मायाएँ दुस्तर होती हैं।। परंतप! रात के समय कर्ण के बाणों से क्षत-विक्षत होकर पाण्डव सैनिकों के पाँव उखड़ गये हैं और वे कौरव सेनारूपी समुद्र में डूब रहे हैं। तुम उनके लिये तटभूमि बन जाओ।। रात्रि के समय राक्षसों का अनन्त पराक्रम और भी बढ़ जाता है। वे बलवान, परम दुर्धर्ष, शूरवीर और पराक्रम पूर्वक विचरने वाले होते हैं। तुम आधी रात के समय अपनी माया द्वारा रणभूमि में महाधनुर्धर कर्ण को मार डालो और धृष्टद्युम्न आदि पाण्डव सैनिक द्रोणाचार्य का वध करेंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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