षट्पंचाशत्तम (56) अध्याय: कर्ण पर्व
महाभारत: कर्ण पर्व: षट्पंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 71-90 का हिन्दी अनुवाद
वहाँ भीमसेन के नाराचों द्वारा मर्मस्थानों में घायल हुए हाथी सवारों हित धराशायी हो इस पृथ्वी को कम्पित कर देते थे। जिनके सवार मारे गये थे, वे घोड़े और पैदल सैनिक भी युद्धस्थल में छिन्न-भिन्न हो मुंह से बहुत सा रक्त वमन करते हुए प्राणशून्य होकर पड़े थे। सहस्त्रों रथी रथ से नीचे गिरा दिये गये थे। उनके अस्त्र-शस्त्र भी गिर चुके थे। वे सब के सब क्षत-विक्षत ही भीमसेन के भय से भीत एवं प्राणहीन दिखायी दे रहे थे। भीमसेन के बाणों से छिन्न-भिन्न हुए रथियों, घुड़सवारों, सारथियों, पैदलों,घोड़ों और हाथियों की लाशों से वहाँ की धरती आच्छादित हो गयी थी। उस महासमर में दुर्योधन की सारी सेना भीमसेन के भय से पीड़ित हो स्तब्ध सी खड़ी थी। उत्साह शून्य, घायल, निश्चेष्ट, भयंकर और अत्यन्त दीन सी प्रतीत होती थी। नरेश्वर! जिस समय ज्वार न उठने से जल स्वच्छ एवं शान्त हो, उस समय जैसे समुद्र निश्चल दिखायी देता है, उसी प्रकार आपकी सारी सेना निश्चेष्ट खड़ी थी। यद्यपि आपके सैनिकों में क्रोध, पराक्रम और बल की कमी नहीं थी तो भी घमंड चूर-चूर हो गया था; इसलिये उस समय आपके पुत्र की वह सारी सेना तेजोहीन-सी प्रतीत होती थी। भरतश्रेष्ठ। परस्पर मार खाती हुई वह सेना रक्त के प्रवाह में डूबकर खून से लथपथ हो गयी थी और एक दूसरे की चोट खाकर विनाश को प्राप्त हो रही थी। सूतपुत्र कर्ण रणभूमि में कुपित हो पाण्डव सेना को और भीमसेन कौरव-सैनिकों को खदेड़ते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। जब इस प्रकार अद्भुत दिखायी देने वाला वह भंयकर संग्राम चल ही रहा था, उस समय दूसरी और विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन सेना के मध्य भाग में बहुत से संशप्तकों का संहार करके भगवान श्रीकृष्ण से बोले- ‘जनार्दन! युद्ध करती हुई इस संशप्तक-सेना के पांव उखड़ गये हैं। ये संशप्तक महारथी अपने-अपने दल के साथ भागे जा रहे हैं। जैसे मृग सिंह की गर्जना सुनकर हतोत्साह हो जाते हैं, उसी प्रकार ये लोग मेरे बाणों की चोट सहन करने में असमर्थ हो गये हैं। उधर वह सृंजयों की विशाल सेना भी महासमर में विदीर्ण हो रही है। श्रीकृष्ण वह हाथी की रस्सी के चिह्न से युक्त बुद्धिमान कर्ण का ध्वज दिखायी दे रहा है। वह राजाओं की सेना के बीच सानन्द विचरण कर रहा है। जनार्दन! आप तो जानते ही हैं कि कर्ण कितना बलवान तथा पराक्रम प्रकट करने में समर्थ हैं। अत: रणभूमि में दूसरे महारथी उसे जीत नहीं सकते हैं। श्रीकृष्ण! जहाँ यह कर्ण हमारी सेना को खदेड़ रहा है, वहीं चलिये। रणभूमि में संशप्तकों को छोड़कर अब महारथी सूतपुत्र के ही पास रथ ले चलिये। मुझे यही ठीक जान पड़ता है अथवा आपको जैसा जंचे, वैसा कीजिये'। अर्जुन की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे हंसते हुए से कहा- ‘पाण्डुनन्दन! तुम शीघ्र ही कौरव सैनिकों का संहार करो’ राजन! तदनन्तर श्रीकृष्ण के द्वारा हांके गये हंस के समान श्वेत रंग वाले घोड़े श्रीकृष्ण और अर्जुन को लेकर आपकी विशाल सेना में घुस गये। श्रीकृष्ण द्वारा संचालित हुए उन सुवर्णभूषित श्वेत अश्वों के प्रवेश करते ही आपकी सेना में चारों ओर भगदड़ मच गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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