महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 39 श्लोक 18-35

एकोनचत्वारिंश (39) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: एकोनचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

सूतपुत्र! जैसे बालक, मूढ़ और वेग से चौकड़ी भरने-वाला क्षुद्र मृग क्रोध में भरे हुए विशालकाय, केसर युक्त सिंह को ललकारे, तुम्हारा आज यह अर्जुन का युद्ध के लिए आह्वान करना वैसा ही है। सूतपुत्र! तुम महापराक्रमी राजकुमार अर्जुन का आह्वानन करो। जैसे वन में मांस-भक्षण से तृप्त हुआ गीदड़ महाबली सिंह के पास जाकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार तुम भी अर्जुन से भिड़कर विनाश के गर्त में न गिरो। कर्ण! जैसे कोई खरगोश ईषादण्ड के समान दाँतों वाले महान मदस्त्रावी गजराज को अपने साथ युद्ध के लिए बुलाता हो, उसी प्रकार तुम भी कुन्ती पुत्र धनंजय का रणक्षेत्र में आह्वान करते हो। तुम यदि पूर्णतः क्रोध में भरे हुए अर्जुन के साथ जूझना चाहते हो तो मूर्खतावश बिल में बैठे हुए महाविषैले काले सर्प को किसी काठ की छड़ी से बींध रहे हो। कर्ण! तुम मूर्ख हो; क्रोध में भरे हुए केसरी सिंह का अनादर करके गर्जना करे, उसी प्रकार तुम भी मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी और क्रोध में भरे हुए पाण्डु कुमार अर्जुन का लंघन करके गरज रहे हो। कर्ण! जैसे कोई सर्प अपने पतन के लिए ही पक्षियों में श्रेष्ठ वेगशाली विनता नन्दन गरुड़ का आह्वान करता है, उसी प्रकार तुम भी अपने विनाश के लिये ही कुन्ती कुमार अर्जुन को ललकार रहे हो। अरे! तुम चन्द्रोदय के समय बढ़ते हुए, जल जन्तुओं से पूर्ण तथा उत्ताल तरंगों से व्याप्त अगाध जलराशि वाले भयंकर समुद्र को बिना किसी नाव के ही केवल दोनों हाथों के सहारे पार करना चाहते हो।

बेटा कर्ण! दुन्दुभि की ध्वनि के समान जिसका कंठ स्वर गम्भीर है, जिसके सींग तीखे हैं तथा जो प्रहार करने में कुशल है, उस साँड के समान पराक्रमी पृथापुत्र अर्जुन को तुम युद्ध के लिए ललकार रहे हो। जैसे महाभयंकर महामेघ के मुकाबले में कोई मेंढक टर्र-टर्र कर रहा हो, उसी प्रकार तुम संसार में बाण रूपी जल की वर्षा करने वाले मानव मेघ अर्जुन को लक्ष्य करके गर्जना करते हो। कर्ण! जैसे अपने घर में बैठा हुआ कोई कुत्ता वन में रहने वाले बाघ की ओर भूँके, उसी प्रकार तुम भी नरव्याघ्र अर्जुन को लक्ष्य करके भूँक रहे हो। कर्ण! वन में खरगोशों के साथ रहने वाला गीदड़ भी जब तक सिंह को नहीं देखता, तब तक अपने को सिंह ही मानता रहता है। राधा नन्दन! उसी प्रकार तुम भी शत्रुओं का दमन करने वाले पुरुषसिंह अर्जुन को न देखने के कारण ही अपने को सिंह समझना चाहते हो। एक रथ पर बैठे हुए सूर्य और चन्द्रमा के समान सुशोभित श्रीकृष्ण और अर्जुन को जब तक तुम नहीं देख रहे हो, तभी तक अपने को बाघ माने बैठे हो। कर्ण! महासमर में जब तक गाण्डीव की टंकार नहीं सुनते हो, तभी तक तुम जैसा चाहो, बक सकते हो। रथ की घर्घराहट और धनुष की टंकार से दसों दिशाओं को निनादित करते हुए सिंह सदृश अर्जुन को जब दहाड़ते देखोगे, तब तुरंत गीदड़ बन जाओगे। ओ मूढ़! तुम सदा से ही गीदड़ हो और अर्जुन सदा से ही सिंह है। वीरों के प्रति द्वेष रखने के कारण ही तुम गीदड़ जैसे दिखाई देते हो। जैसे चूहा और बिलाव, कुत्ता और बाघ, गीदड़ और सिंह तथा खरगोश और हाथी अपनी निर्बलता और प्रबलता के लिये प्रसिद्ध है, उसी प्रकार तुम निर्बल हो और अर्जुन सबल है। जैसे झूठ और सच तथा विष और अमृत अपना अलग-अलग प्रभाव रखते हैं, उसी प्रकार तुम और अर्जुन भी अपने-अपने कर्मों के लिये सर्वत्र विख्यात हो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण के प्रति शल्य का आक्षेप विषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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