महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 37 श्लोक 31-47

सप्‍तत्रिंश (37) अध्‍याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: सप्‍तत्रिंश अध्याय: श्लोक 31-47 का हिन्दी अनुवाद
  • ये आठ गुण पुरुष की शोभा बढ़ाते हैं- बुद्धि, कुलीनता, शास्‍त्रज्ञान, इन्द्रियनिग्रह, पराक्रम, अधिक न बोलने का स्‍वभाव, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता। (31)
  • तात! एक गुण ऐसा है, जो इन सभी महत्‍त्‍वपूर्ण गुणों पर हठात अधिकार कर लेता है। राजा जिस समय किसी मनुष्‍य का सत्‍कार करता है, उस समय यह गुण [1] उपर्युक्‍त सभी गुणों से बढ़कर शोभा पाता है। (32)
  • नित्‍य स्‍नान करने वाले मनुष्‍य को बल, रूप, मधुरस्‍वर, उज्‍जवल वर्ण, कोमलता, सुगंध, पवित्रता, शोभा, सुकुमारता और सुंदरी स्त्रियां- ये दस लाभ प्राप्‍त होते हैं। (33)
  • थोड़ा भोजन करने वाले को निम्नांकित छ: गुण प्राप्‍त होते हैं- आरोग्‍य, आयु, बल और सुख तो मिलते ही हैं, उसकी संतान उत्तम होती है तथा ‘यह बहुत खाने वाला है’ ऐसा कहकर लोग उस पर आक्षेप नहीं करते। (34)
  • अकर्मण्‍य, बहुत खाने वाले, सब लोगों से वैर करने वाले, अधिक मायावी, क्रूर, देश-काल का ज्ञान न रखने वाले और निंदित वेष धारण करने वाले मनुष्‍य को कभी अपने घर में न ठहरने दे। (35)
  • बहुत दुखी होने पर भी कृपण, गाली बकने वाले, मूर्ख, जंगल में रहने वाले, धूर्त, नीच सेवी, निर्दयी, वैर बांधने वाले और कृतघ्न से कभी सहायता की याचना नहीं करनी चाहिये। (36)
  • क्‍लेशप्रद कर्म करने वाले, अत्‍यंत प्रमादी, सदा असत्‍य भाषण करने वाले, अस्थिर भक्ति वाले, स्‍नेह से रहित, अपने को चतुर मानने वाले-इन छ: प्रकार के अधम पुरुषों की सेवा न करे। (37)
  • धन की प्राप्ति सहायक की अपेक्षा रखती है और सहायक धन की अपेक्षा रखते हैं; ये दोनों एक-दूसरे के आश्रित हैं, परस्‍पर के सहयोग बिना इनकी सिद्धि नहीं होती। (38)
  • पुत्रों को उत्‍पन्‍न कर उन्‍हें ऋण के भार से मुक्‍त करके उनके लिये किसी जीविका का प्रबंध कर दे; अपनी सभी कन्याओं का योग्‍य वर के साथ विवाह कर दे तत्‍पश्‍चात वन में मुनिवृत्ति से रहने की इच्‍छा करे। (39)
  • जो सम्‍पूर्ण प्राणियों के लिये हितकर और अपने लिये भी सुखद हो, उसे ईश्र्वरार्पण बुद्धि से करे; सम्‍पूर्ण सिद्धियों का यही मूलमंत्र है। (40)
  • जिसमें बढ़ने की शक्ति, प्रभाव, तेज, पराक्रम, उद्योग और [2] निश्चय है, उसे अपनी जीविका के नाश का भय कैसे हो सकता है। (41)
  • पाण्‍डवों के साथ युद्ध करने में जो दोष है, उन पर दृष्टि डालिये; उनसे संग्राम छिड़ जाने पर इन्‍द्र आदि देवताओं को भी कष्‍ट ही उठाना पड़ेगा। इसके सिवा पुत्रों के साथ वैर, नित्‍य उद्वेगपूर्ण जीवन, कीर्ति का नाश और शत्रुओं को आनन्‍द होगा। (42)
  • इन्‍द्र के समान पराक्रमी महाराज! आकाश में तिरछा उदित हुआ धूमकेतु जैसे सारे संसार में अशांति और उपद्रव खड़ा कर देता है, उसी तरह भीष्‍म, आप, द्रोणाचार्य और राजा युधिष्ठिर का बढ़ा हुआ कोप इस संसार का संहार कर सकता है। (43)
  • आपके सौ पुत्र, कर्ण और पांच पाण्‍डव- ये सब मिलकर समुद्रपर्यत्‍न सम्‍पर्ण पृथ्वी का शासन कर सकते हैं। (44)
  • राजन! आपके पुत्र वन के समान हैं और पाण्‍डव उस में रहने वाले व्‍याघ्र हैं। आप व्‍याघ्रों सहित समस्‍त वन को नष्‍ट न कीजिये तथा वन से उन व्‍याघ्रों को दूर न भगाइये। (45)
  • व्‍याघ्रों के बिना वन की रक्षा नहीं हो सकती तथा वन के बिना व्‍याघ्र नहीं रह सकते; क्‍योंकि व्‍याघ्र वन की रक्षा करते हैं और वन व्‍याघ्रों की। (46)
  • जिनका मन पापों में लगा रहता है, वे लोग दूसरों के कल्‍याणमय गुणों को जानने की वैसी इच्‍छा नहीं रखते, जैसी कि उनके अवगुणों को जानने की रखते हैं। (47)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. राजसम्‍मान
  2. अपने कर्तव्‍य का

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