द्वात्रिंश (32) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 22-32 का हिन्दी अनुवाद
राजन! यदि अजातशत्रु युधिष्ठिर[1] आप पर ही सारे पापों (दोषों)का भार डालकर [2] पाप के बदले पाप करने की इच्छा कर लें तो सारे कौरव असमय में ही नष्ट हो जायं और संसार में केवल आपकी निंदा फैल जाय। ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो लोकपालों के अधिकार से बाहर हो? तभी तो अर्जुन [3] स्वर्ग-लोक को देखने के लिये गये थे। इस प्रकार लोकपालों द्वारा सम्मानित होने पर भी उन्हें कष्ट भोगना पड़ता है तो नि:संदेह यह कहा जा सकता है कि दैवबल के सामने मनुष्य का पुरुषार्थ कुछ भी नहीं है। ये शोर्य, विद्या आदि गुण अपने पूर्वकर्म के अनुसार ही प्राप्त होते हैं और प्राणियों की वर्तमान उन्नति तथा अवनति भी अनित्य है। यह सब सोचकर राजा बलि ने जब इसका पार नहीं पाया, तब यही निश्चय किया कि इस विषय में काल (दैव) के सिवा और कोई कारण नहीं है। आंख, कान, नाक, त्वचा तथा जिहृा-ये पांच ज्ञानेन्द्रियां समस्त प्राणियों के रूप आदि विषयों के ज्ञान के स्थान (कारण) हैं। तृष्णा का अंत होने के पश्चात ये सदा प्रसन्न ही रहती हैं। अत: मनुष्य को चाहिये कि वह व्यथा और दु:ख से रहित हो तृष्णा की निवृत्ति के लिये उन इन्द्रियों को अपने वश में करे। कहते हैं, केवल पुरुषार्थ का अच्छे ढंग से प्रयोग होने पर भी वह उत्तम फल देने वाला होता है, जैसे माता-पिता के प्रयत्न से उत्पन्न हुआ पुत्र विधिपूर्वक भोजनादि द्वारा वृद्धि को प्राप्त होता है; परंतु मैं इस मान्यता पर विश्वास नहीं करता [4]। राजन! इस जगत में प्रिय-अप्रिय, सुख-दु:ख, निंदा-प्रशंसा- ये मनुष्य को प्राप्त होते ही रहते हैं। इसीलिये लोग अपराध करने पर अपराधी की निंदा करते हैं ओर जिसका बर्ताव उत्तम होता है, उस साधु पुरुष की ही प्रशंसा करते हैं। अत: आप जो भरतवंश में विरोध फैलाते हैं, इसके कारण मैं तो आपकी निंदा करता हूं; क्योंकि इस कौरव-पाण्डव-विरोध से निश्चय ही समस्त प्रजाओं का विनाश होगा। यदि आप मेरे कथनानुसार कार्य नहीं करेंगे तो आपके अपराध से अर्जुन समस्त कौरव वंश को उसी प्रकार दग्ध कर डालेंगे, जैसे आग घास-फूस के समूह को जला देती है। राजन! महाराज! समस्त संसार में एकमात्र आप ही अपने स्वेच्छाचारी पुत्र की प्रशंसा करते हुए उसके अधीन होकर द्यूतक्रीड़ा के समय जो उसकी प्रशंसा करते थे तथा [5] शांत न हो सके, उसका अब यह भयंकर परिणाम अपनी आंखों से देख लीजिये। नरेन्द्र! आपने ऐसे लोगों [6]को इकट्ठा कर लिया है, जो विश्वास के योग्य नहीं है तथा विश्वसनीय पुरुषों (पाण्डवों) को आपने दण्ड दिया है, अत: कुरुकुल नंदन! अपनी इस (मानसिक) दुर्बलता के कारण आप अनंत एवं समृद्धिशालिनी पृथ्वी की रक्षा करने में कभी समर्थ नहीं हो सकते। नरश्रेष्ठ! इस समय रथ के वेग से हिलने डुलने के कारण मैं थक गया हूं, यदि आज्ञा हो तो सोने के लिये जाऊँ। प्रात:-काल जब सभी कौरव सभा में एकत्र होंगे, उस समय वे अजातशत्रु युधिष्ठिर के वचन सुनेंगे। धृतराष्ट्र ने कहा- सूतपुत्र! मैं आज्ञा देता हूं, तुम अपने घर जाओ और शयन करो। सबेरे सब कौरव सभा में एकत्र हो तुम्हारे मुख से अजातशत्रु युधिष्ठिर के संदेश को सुनेंगे। इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अतंर्गत संजययानपर्व में धृतराष्ट्रसंजयसंवादविषयक बत्तीसवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आपको ही दोषी ठहराकर
- ↑ आपकी ही भाँति
- ↑ इन्द्रकील पर्वत पर लोकपालों से मिलकर एवं उनसे अस्त्र प्राप्त करके भू और भुवलोंक को लांघकर
- ↑ क्योंकि इस विषय में दैव ही प्रधान है
- ↑ राज्य का लोभ छोड़कर
- ↑ शकुनि-कर्ण आदि
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