महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 177 श्लोक 23-42

सप्तसप्तत्यधिकशततम (177) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 23-42 का हिन्दी अनुवाद
  • ‘बहुत अच्छा, कहो बेटी’ इस प्रकार उस कन्या को जब परशुरामजी ने प्रेरित किया; तब वह प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी परशुरामजी के पास आयी और उनके कल्याणकारी चरणों को सिर से प्रणाम करके कमलदल के समान सुशोभित होने वाले दोनों हाथों से उनका स्पर्श करती हुई सामने खड़ी हो गयी। (23-24)
  • उसके नेत्रों में आंसू भर आये। वह शोक से आतुर होकर रोने लगी और सबको शरण देने वाले भृगुनन्दन परशुरामजी की शरण में गयी। (25)
  • परशुरामजी बोले- राजकुमारी! जैसे तू इन सृंजय की दौहित्री है, उसी प्रकार मेरी भी है। तेरे मन में जो दु:ख है, उसे बता। मैं तेरे कथनानुसार सब कार्य करूंगा। (26)
  • अम्बा बोली- भगवन! आप महान व्रतधारी हैं। आज मैं आपकी शरण में आयी हूँ। प्रभो! इस भयंकर शोकसागर में डूबने से मुझे बचाइये। (27)
  • भीष्‍मजी कहते हैं- राजन! उसके सुन्दर रूप, नूतन (तरुण) शरीर तथा अत्यन्त सुकुमारता को देखकर परशुरामजी चिन्ता में पड़ गये कि न जाने यह क्या कहेगी? उसके प्रति दयाभाव से परिपूर्ण हो भृगुकुलभूषण परशुराम बहुत देर तक उसी के विषय में चिन्ता करते रहे। (28-29)
  • तदनन्तर परशुरामजी के पु:न यह कहने पर कि तुम अपनी बात कहो, पवित्र मुस्कान वाली अम्बा ने उनसे अपना सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बता दिया। (30)
  • राजकुमारी अम्बा का यह कथन सुनकर जमदग्निनन्दन परशुराम ने क्या करना है, इसका निश्‍चय करके उस सुन्दर अगोंवाली राजकुमारी से कहा। (31)
  • परशुरामजी बोले- भाविनि! मैं तुम्हें कुरुश्रेष्‍ठ भीष्‍म के पास भेजूंगा। नरपति भीष्‍म सुनते ही मेरी आज्ञा का पालन करेगा। (32)
  • भद्रे! यदि गंगानन्दन भीष्‍म मेरी बात नहीं मानेगा तो मैं युद्ध में अस्त्र-शस्त्रों के तेज से मन्त्रियों सहित उसे भस्म कर डालूंगा। (33)
  • अथवा राजकुमारी! यदि वहाँ जाने का तेरा विचार न हो तो मैं वीर शाल्वराज को ही पहले इस कार्य में नियुक्त करूं, उसके साथ तेरा ब्याह करा दूं। (34)
  • अम्बा बोली- भृगुनन्दन! शाल्वराज में मेरा अनुराग है और मैं पहले से ही उन्हें पाना चाहती हूँ। यह सुनते ही भीष्‍म ने मुझे विदा कर दिया था। (35)
  • तब सौभराज के पास जाकर मैंने उनसे ऐसी बातें कहीं जिन्हें अपने मुंह से कहना स्त्री जाति के लिये अत्यन्त दुष्‍कर होता है; परंतु मेरे चरित्र पर संदेह हो जाने के कारण उसने मुझे स्वीकार नहीं किया। (36)
  • भृगुनन्दन! इन सब बातों पर बुद्धिपूर्वक विचार करके जो उचित प्रतीत हो, उसी कार्य की ओर आप ध्‍यान दें। (37)
  • मेरी इस विपत्ति का मूल कारण महान व्रतधारी भीष्‍म है, जिसने उस समय बलपूर्वक मुझे उठाकर रथ पर रख लिया और इस प्रकार मुझे वश में करके वह हस्तिनापुर ले आया। (38)
  • महाबाहु भृगुसिंह! आप भीष्‍म को ही मार डालिये, जिसके कारण मुझे ऐसा दु:ख प्राप्त हुआ है और मैं इस प्रकार विवश होकर अत्यन्त अप्रिय आचरण में प्रवृत्त हुई हूँ। (39)
  • निष्‍पाप भार्गव! भीष्‍म लोभी, नीच और विजयोल्लास से परिपूर्ण है; अत: आपका उसी से बदला लेना उचित है। (40)
  • प्रभो! भरतवंशी भीष्‍म ने जब से मुझे इस दशा में डाल दिया है, तब से मेरे हृदय में यही संकल्प उठता है कि मैं उस महान व्रतधारी का वध करा दूं। (41)
  • निष्‍पाप महाबाहु राम! आज आप मेरी इसी कामना को पूर्ण कीजिये। जैसे इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया था, उसी प्रकार आप भी भीष्‍म को मार डालिये। (42)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में अम्बा-परशुराम-संवादविषयक एक सौ सतहत्तरवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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