महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 162 श्लोक 26-50

द्विषष्‍टयधिकशततम (162) अध्‍याय: उद्योग पर्व (उलूकदूतागमनपर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: द्विषष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 26-50 का हिन्दी अनुवाद
  • वरुणालय समुद्र शीघ्र ही अपनी सीमा का उल्‍लंघन कर जाये और पर्वत जीर्ण-शीर्ण होकर बिखर जायें, परंतु मेरी कही हुई बात झूठी नहीं हो सकती। (26)
  • दुर्बुद्धे! तेरी सहायता के लिये यमराज, कुबेर अथवा भगवान रुद्र ही क्‍यों न आ जायं, पाण्‍डव अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सब कार्य अवश्‍य करेंगे। मैं अपनी इच्‍छा के अनुसार दु:शासन का रक्‍त अवश्‍य पीऊँगा। (27)
  • उस समय साक्षात भीष्‍म को भी आगे करके जो कोई भी क्षत्रिय क्रोधपूर्वक मेरे ऊपर धावा करेगा, उसे उसी क्षण यमलोक पहुँचा दूँगा। (28)
  • मैंने क्षत्रियों की सभा में यह बात कही है, जो अवश्‍य सत्‍य होगी। यह मैं अपनी सौगन्‍ध खाकर कहता हूँ। (29)
  • भीमसेन का वचन सुनकर सहदेव का भी अमर्ष जाग उठा। तब उन्‍होंने भी क्रोध से आँखे लाल करके यह बात कही- (30)
  • ओ पापी! मैं इन वीर सैनिकों की सभा में गर्वीले शूरवीर के योग्‍य वचन बोल रहा हूँ। तू इसे सुन ले और अपने पिता के पास जाकर सुना दे। (31)
  • यदि धृतराष्‍ट्र का तेरे साथ सम्‍बन्‍ध न होता, तो कभी कौरवों के साथ हम लोगों की फूट नहीं होती। (32)
  • तू सम्‍पूर्ण जगत तथा धृतराष्‍ट्र कुल के विनाश के लिये पापाचारी मूर्तिमान वैर पुरुष होकर उत्‍पन्‍न हुआ है। तू अपने कुल का भी नाश करने वाला है। (33)
  • उलूक! तेरा पापात्‍मा पिता जन्‍म से ही हम लोगों के प्रति प्रतिदिन क्रूरतापूर्ण अहितकर बर्ताव करना चाहता है। (34)
  • इसलिये मैं शकुनि में देखते देखते सबसे पहले तेरा वध करके सम्‍पूर्ण धनुर्धरों के सामने शकुनि को भी मार डालूँगा और इस प्रकार अत्‍यन्‍त दुर्गम शत्रुता से पार हो जाऊँगा। (35)
  • भीमसेन और सहदेव दोनों के वचन सुनकर अर्जुन ने भीमसेन से मुस्‍कराते हुए कहा- आर्य भीम! जिनका आपके साथ वैर ठन गया है, वे घर में बैठकर सुख का अनुभव करने वाले मूर्ख कौरव काल के पाश में बँध गये हैं अर्थात उनका जीवन नहीं के बराबर है। (36-37)
  • पुरुषोत्‍तम! आपको इस उलूक से कोई कठोर बात नहीं कहनी चाहिये। बेचारे दूतों का क्‍या अपराध है। (38)
  • भयंकर पराक्रमी भीमसेन से ऐसा कहकर महाबाहु अर्जुन ने धृष्टद्युम्न वीर सुह्रदों से कहा- (39)
  • बन्‍धुओ! आप लोगों ने उस पापी दुर्योधन की बात सुनी है न इसमें उसके द्वारा विशेषत: मेरी और भगवान श्रीकृष्ण की निन्‍दा की गयी है। आप लोग हमारे हित की कामना रखते हैं, इसलिये इस निन्‍दा को सुनकर कुपित हो उठे हैं। (40-41)
  • परंतु भगवान वासुदेव के प्रभाव और आप लोगों के प्रयत्‍न से मैं इस समस्‍त भूमण्‍डल के सम्‍पूर्ण क्षत्रियों को भी कुछ नहीं गिनता हूँ। (42)
  • यदि आप लोगों की आज्ञा हो तो मैं इस बात का उत्‍तर उलूक को दे दूँ, जिसे यह दुर्योधन को सुना देगा। (43)
  • अथवा आपकी सम्‍मति हो, तो कल सवेरे सेना के मुहाने पर उसकी इन शेखी भरी बातों का ठीक-ठीक उत्‍तर गाण्डीव धनुष द्वारा दे दूँगा; क्‍योंकि केवल बातों में उत्‍तर देने वाले तो नपुंसक होते हैं। (44)
  • अर्जुन की इस प्रवचन शैली से सभी श्रेष्‍ठ भूपाल आश्‍चर्य चकित हो उठे और वे सबके सब उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। (45)
  • तदनन्‍तर धर्मराज ने उन समस्‍त राजाओं को उनकी अवस्‍था और प्रतिष्‍ठा के अनुसार अनुनय-विनय करके शान्‍त किया और दुर्योधन को देने योग्‍य जो संदेश था, उसे इस प्रकार कहा- (46)
  • उलू‍क! कोई भी श्रेष्‍ठ राजा शान्‍त रहकर अपनी अवज्ञा सहन नहीं कर सकता। मैंने तुम्‍हारी बात ध्‍यान देकर सुनी है। अब मैं तुम्‍हें उत्‍तर देता हूँ, उसे सुनो। (47)
  • भरतश्रेष्‍ठ जनमेजय! इस प्रकार युधिष्ठिर ने उलूक से पहले मधुर वचन बोलकर फिर ओजस्‍वी शब्‍दों में उत्‍तर दिया। उलूक के मुख से पहले दुर्योधन के पूर्वोक्‍त संदेश को सुनकर युधिष्ठिर रोष से अत्यंत लाल हुए नेत्रों द्वारा देखते हुए विषधर सर्प के समान उच्‍छवास लेने लगे। फिर ओठों के दोनों कोनों को चाटते हुए वे श्रीकृष्‍ण तथा विशाल भुजा ऊपर उठा धूर्त जुआरी शकुनि के पुत्र उलूक से मुस्‍कराते हुए से बोले-। (48-50)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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