महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 श्लोक 37-53

द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: श्लोक 37-53 का हिन्दी अनुवाद


राजर्षे! देवेश्वर इन्द्र ने स्‍वयं आकर बृहस्पति को आगे करके अगस्‍त्‍य ऋषि को मनाया। तदनन्‍तर यज्ञ समाप्‍त होने पर अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हुए अगस्‍त्‍य जी ने उन महामुनियों की विधिवत पूजा करके सबको विदा कर दिया। जनमेजय ने पूछा- मुने! सोने के मस्‍तक से युक्‍त वह नेवला कौन था, जो मनुष्‍यों की -सी बोली बोलता था? मेरे इस प्रश्‍न का मुझे उत्तर दीजिये।

वैशम्‍पायन जी ने कहा- राजन! यह बात न तो तुमने पहले पूछी थी और न मैंने बतायी थी। अब पूछते हो तो सुनो। वह नकुल कौन था और उसकी मनुष्‍यों की-सी बोली कैसे हुई, यह सब बता रहा हूँ। पूर्वकाल की बात है, एक दिन जमदग्‍नि ऋषि ने श्राद्ध करने का संकल्‍प किया। उस समय उनकी होमधेनू स्‍वयं ही उनके पास आयी और मुनि ने स्‍वयं ही उसका दूध दुहा। उस दूध को उन्‍होंने नये पात्र में, जो सुदृढ़ और पवित्र था, रख दिया। उस पात्र में धर्म ने क्रोध का रूप धारण करके प्रवेश किया। धर्म उन मुनिश्रेष्‍ठ की परीक्षा लेना चाहते थे। उन्‍होंने सोचा, देखूं तो ये अप्रिय करने पर क्‍या करते हैं? इसीलिये उन्‍होंने उस दूध को क्रोध के स्‍पर्श से दूषित कर दिया। राजन! मुनि ने उस क्रोध को पहचान लिया; किन्‍तु उस पर वे कुपित नहीं हुए। तब क्रोध ने ब्राह्मण का रूप धारण किया। मुनि के द्वारा पराजित होने पर उस अमर्षशील क्रोध ने उन भृगुश्रेष्‍ठ से कहा- ‘भृगुश्रेष्‍ठ! मैं तो पराजित हो गया। मैंने सुना था कि भृगुवंशी ब्राह्मण बड़े क्रोधी होते हैं; परंतु लोक में प्रचलित हुआ यह प्रवाद आज मिथ्‍या सिद्ध हो गया; क्‍योंकि आपने मुझे जीत लिया। प्रभो! आज मैं आपके वश में हूँ। आपकी तपस्‍या से डरता हूँ। साधो! आप क्षमाशील महात्‍मा हैं, मुझ पर कृपा कीजिये’।

जमदग्नि बोले- 'क्रोध! मैंने तुम्‍हें प्रत्‍यक्ष देखा है। तुम निश्चिन्त होकर यहाँ से जाओ। तुमने मेरा कोई अपराध नहीं किया है; अत: आज तुम पर मेरा रोष नहीं है। मैंने जिन पितरों के उद्देश्‍य से इस दूध का संकल्‍प किया था, वे महाभाग पितर ही उसके स्‍वामी हैं। जाओ, उन्‍हीं से इस विषय में समझो।' मुनि के ऐसा कहने पर क्रोधरूपधारी धर्म भयभीत हो वहाँ से अदृश्‍य हो गये और पितरों के शाप से उन्‍हें नेवला होना पड़ा। इस शाप का अन्‍त होने के उद्देश्‍य से उन्‍होंने पितरों को प्रसन्‍न किया। तब पितरों ने कहा- ‘तुम धर्मराज युधिष्‍ठिर पर आक्षेप करके इस शाप से छुटकारा पा जाओगे’। उन्‍होंने ही इस नेवले को यज्ञ सम्‍बन्‍धी स्‍थान और धर्मारण्‍य का पता बताया था। वह धर्मराज की निन्‍दा के उद्देश्‍य से दौड़ता हुआ उस यज्ञ में जा पहुँचा था। धर्मपुत्र युधिष्‍ठिर पर आक्षेप करते हुए सेर भर सत्‍तू के दान का माहात्‍म्‍य बताकर क्रोधरूपी धर्म शाप से मुक्‍त हो गया और वह धर्मराज युधिष्‍ठिर में स्‍थित हो गया। इस प्रकार महात्‍मा युधिष्‍ठिर का यज्ञ समाप्‍त होने पर यह घटना घटी थी और वह नेवला हम लोगों के देखते-देखते वहाँ से गायब हो गया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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