द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णव धर्म पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-20 का हिन्दी अनुवाद
पाण्डुनन्दन! देश-काल के अनुसार प्राप्त एवं रास्ता चलकर थके-माँदे आये हुए भूखे और अन्न चाहने वाले ब्राह्मण को अन्न-दान करना चाहिये। जो दूर का रास्ता तय करने के कारण दुर्बल तथा भूख-प्यास और परिश्रम से थका-माँदा हो, जिसके पैर बड़ी कठिनता से आगे बढ़ते हों तथा जो बहुत पीड़ित हो रहा हो, ऐसा ब्राह्मण अन्न दाता का पता पूछता हुआ धूल से भरे पैरों से यदि घर पर आकर अन्न की याचना करे तो यत्नपूर्वक उसकी पूजा करनी चाहिये; क्योंकि अतिथि स्वर्ग का सोपान होता है। नरश्रेष्ठ! उसके संतुष्ट होने पर सम्पूर्ण देवता संतुष्ट हो जाते हैं। पार्थ! अतिथि की पूजा करने से अग्नि देव को जितनी प्रसन्नता होती है, उतनी हविष्य से होम करने और फूल तथा चन्दन चढ़ाने से भी नहीं होती। पाण्डवश्रेष्ठ! देवताओं के ऊपर चढ़ी हुई पत्र-पुष्प आदि पूजन-साम्रगी को हटाकर उस स्थान को साफ करना, ब्राह्मण के जूठे किये हुए बर्तन और स्थान को माँज-धो देना, थके हुए ब्राह्मण के पैर दबाना, उसके चरण धोना, उसे रहने के लिये घर, सोने के लिये शय्या और बैठने के लिये आसन देना-इनमें से एक-एक कार्य का महत्त्व गोदान से बढ़कर है। जो मनुष्य ब्राह्मणों को पैर धोने के लिये जल, पैर में लगाने के लिये घी, दीपक, अन्न और रहने के लिये घर देते हैं, वे कभी यमलोक में नहीं जाते। शत्रुदमन! राजन! ब्राह्मण का अतिथि सत्कार तथा भक्तिपूर्वक उसकी सेवा करने से समस्त तैंतीसों देवताओं की सेवा हो जाती है। पहले का परिचित मनुष्य यदि घर पर आवे तो उसे अभ्यागत कहते हैं और अपरिचित पुरुष अतिथि कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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