द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-48 का हिन्दी अनुवाद
इसलिये मनुष्य को उपर्युक्त गुरुजनों के अधीन रहकर उनकी सेवा-सुश्रूषा में लगे रहना चाहिये। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि गुरुजनों के अपमान से नरक में गिरना पड़ता है। जो लोग किसी अंग से हीन हों, जिनका कोई अंग अधिक हो, जो विद्या से हीन, अवस्था के बूढ़े, रूप और धन से रहित तथा जाति से भी नीच हों, उन पर आक्षेप नहीं करना चाहिये। क्योंकि आक्षेप करने वाले मनुष्य का पुण्य, जिसका आक्षेप किया जाता है, उसके पास चला जाता है और उसका पाप आक्षेप करने वाले के पास चला आता है। नास्तिकता, वेदों की निन्दा, देवताओं पर दोषारोपण, द्वेष, दम्भ, अभिमान, क्रोध तथा कठोरता- इनका परित्याग कर देना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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