द्विपंचाशत्तम (52) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद
महाराज! इन्द्रभवन के समान शोभा पाने वाले धृतराष्ट्र के महल में उन दानों ने राजा धृतराष्ट्र, महाबुद्धिमान विदुर और राजा युधिष्ठिर का दर्शन किया। फिर क्रमश: दुर्जय वीर भीमसेन, माद्रीनन्दन पाण्डुपुत्र नकुल-सहदेव, धृतराष्ट्र की सेवा में लगे रहने वाले अपराजित वीर युयुत्सु, परमबुद्धिमती गान्धारी, कुन्ती, भार्या, द्रौपदी तथा सुभद्रा आदि भरतवंश की सभी स्त्रियों से मिले। गान्धारी की सेवा में रहने वाली उन सभी स्त्रियों का उन दोनों ने दर्शन किया। सबसे पहले उन शत्रुदमन वीरों ने राजा धृतराष्ट्र के पास जाकर अपने नाम बताते हुए उनके दोनों चरणों का स्पर्श किया। उसके बाद उन महात्माओं ने गान्धारी, कुन्ती, धर्मराज युधिष्ठिर और भीमसेन के पैर छुये। फिर विदुर जी से मिलकर उनका कुशल-मंगल पूछा। इसके बाद वैश्यापुत्र महारथी महामना युयुत्सु को भी हृदय से लगाया। तत्पश्चात उन सबके साथ वे दोनों बूढ़े राजा धृतराष्ट्र के पास जा बैठे। रात हो जाने पर मेधावी महाराज धृतराष्ट ने उन कुरुश्रेष्ठ वीरों तथा भगवान श्रीकृष्ण को अपने-अपने घर में जाने के लिये विदा किया। राजा की आज्ञा पाकर वे सब लोग अपने-अपने घर को गये। पराक्रमी भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के ही घर में गये। वहाँ उनकी यथोचित पूजा हुई और सम्पूर्ण अभीष्ट पदार्थ उनकी सेवा में उपस्थित किये गये। भोजन के पश्चात मेधावी श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ सोये। जब रात बीती और प्रात:काल हुआ, तब पूर्वाह्नकाल की क्रिया-संध्या वन्दन आदि करके वे दोनों परम पूजित मित्र धर्मराज युधिष्ठिर के महल में गये। जहाँ महाबली धर्मराज अपने मन्त्रियों के साथ रहते थे। उस परम सुन्दर एवं सुसज्जित भवन में प्रवेश करके उन महात्माओं ने धर्मराज युधिष्ठिर का दर्शन किया। मानो दोनों अश्विनीकुमार देवराज इन्द्र से आकर मिल हों। श्रीकृष्ण और अर्जुन जब राजा के पास पहुँचे, तब उन्हें देख उनको बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर उनके आज्ञा देने पर वे दोनों मित्र आसन पर विराजमान हुए। तत्पश्चात वक्ताओं में श्रेष्ठ भूपालशिरोमणि मेधावी युधिष्ठिर उन्हें कुछ कहने के लिये इच्छुक देख उनसे इस प्रकार कहा- युधिष्ठिर बोले- 'यदुकुल और कुरुकुल को अलंकृत करने वाले वीरो! मालूम होता है, ये लोग मुझसे कुछ कहना चाहते हैं। तुम्हारी सारी इच्छाओं को शीघ्र ही पूर्ण करूँगा। तुम मन में कुछ अन्यथा विचार न करो।' उनके इस प्रकार कहने पर बातचीत करने में कुशल अर्जुन ने धर्मराज के पास जाकर बड़े विनीत भाव से कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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